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न्यायरत्नसार : पंचम अध्याय
साधन व्यतिरेक वाला होने से दृष्टान्ताभास है। क्योंकि इसमें प्रमाणत्वाभावरूप साधन ब्यतिरेक का अभाव है । जो अनुमान निर्दोष हेतु से उत्पन्न होता है उससे प्रमाण माना गया है। इसी प्रकार जब कोई ऐसा कहता है कि शब्द कथंचित् नित्यानित्यात्मक है क्योंकि वह सत् स्वरूप है । जो ऐसा नहीं होता बह सतस्वरूप भी नहीं होता जैसा कि स्तम्भ । यहाँ स्तम्भरूप दृष्टान्त असिद्ध साध्य साधनोभव व्यतिरेक वाला बधर्म्य दृष्टान्ताभासरूप है । इसी प्रकार जब कोई ऐसा कहता है कि "कपिल असर्वज्ञ या अनाप्त है क्योंकि वह अक्षणिक एकान्तवादी है । जो ऐसा नहीं होता वह एकान्त क्षणिकवादी होता है कि जैसा सुगत । सुगत यह वैधर्म्य दृष्टा है । पर यह संदिग्ध साध्य व्यतिरेक वाला है । इसलिये वैधर्म्य दृष्टान्ताभास है । क्योंकि सुगत में असर्वज्ञत्व या अनारतत्व के व्यतिरेक का सन्देह है । इसी प्रकार जब कोई ऐसा कहता है---यह पुरुष अश्रद्धय वचनवाला है क्योंकि इसमें राग-द्वेष आदि है । जो ऐसा नहीं होता है वह राग दोष आदि बाला भी नहीं होता-जैसा कि शुद्धोदन का पुत्र बुद्ध । बुद्ध में साधन का व्यतिरेक संदिग्ध है। इसलिये यह दृष्टान्त सदिग्ध साधन व्यतिरेक वाला होने से बंधभ्यं दृष्टान्ताभास है। इसी प्रकार जब ऐसा कहा जाता है- "कपिल वीतराग नहीं है नयोंकि उसने दया करके कृपापात्रों को भी अपने मांस का खण्ड तक नहीं दिया । जो पोतरा होताई वह दबालु होता हुआ कृपापात्रों को अपने मांस का खण्ड प्रदान करता है जैसा कि तपनबन्धु मनिविशेष ने किया है ।" यहाँ साध्य बीतरागाभाष है और साधन दया से प्रेरित होकर कृपापात्रों के लिये अपने मांस का खण्ड नहीं देना है। इन दोनों साध्य और साधन का व्यतिरेक वीतराग और दया से प्रेरित होकर कृपापात्रों को स्वमांस खण्ड का प्रदान करना है। इस व्यतिरेक में-दृष्टान्त में--वीतरागत्वरूप साध्य का और परमदया से प्रेरित होकर कृपापात्रों के लिए स्वमांस खण्ड का प्रदान करना रूप साधन ये दोनों ही संदिग्ध हैं। इसलिये यह संदिग्धसाध्यसाधनोभय व्यतिरेक वाला दृष्टान्ताभास है । इसी प्रकार जब कोई ऐसा कहता है कि यह पुरुष वीतराग नहीं है क्योंकि यह वक्ता है जो बीतराग होता है वह वक्ता नहीं होता है-जैसा कि अचित्त प्रस्तर खण्ड । यहाँ प्रस्तर खण्ड में साध्य व्यतिरेक रूप वीतरागत्व का और साधन व्यतिरेक रूप ववतृत्वाभाव (अववतृत्व) का यद्यपि सद्भाव ह परन्तु फिर भी ऐसी व्यतिरेक व्याप्ति नहीं बनती है कि जहाँ-जहाँ बीतरागता होती है वहाँवहाँ वक्तृत्वाभाव होता है अतः यह अव्यतिरेक नाम का दृष्टान्ताभास है । इसी तरह जब कोई ऐसा कहता है-शब्द अनित्य है क्योंकि वह कृतक होता है जो अनित्य नहीं होता वह कृतक भी नहीं होता जैसा कि गगन । यहाँ पर गगन में व्यतिरेक व्याप्ति यद्यपि मौजूद है। परन्तु फिर भी वादी ने उसे अपने वचन द्वारा प्रदर्शित नहीं की है। इसी कारण यह अप्रदशित व्यतिरेक नाम का वैधय॑दृष्टान्ताभास है । इसी प्रकार से जब कोई ऐसा कहता है-शब्द अनित्य है क्योंकि वह कृतक होता है। जो कृतक नहीं होता वह अनित्य भी नहीं होता जैसे--आकाश । इस प्रकार का जो यहाँ पर व्यतिरेक आकाश में प्रकट किया गया है वह विपरीत रूप में प्रकट किया गया है । प्रकट व्यतिरेक तो इस प्रकार से करना चाहिए थाकि जो अनित्य नहीं होता बह कृतक नहीं होता इसीलिये यह विपरीत व्यतिरेक वाला वैधर्म्य दृष्टान्ताभास
उपनयनिगमनाभास :
सूत्र-पक्षे हेतोः साध्यस्य चोक्तलक्षण परीपेनोपसंहारावुपनयनिगमानीभासौ ॥ ३६॥
१. इस सम्बन्ध में शिवि राजा का भी दुष्टान्त प्रसिद्ध है।