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न्यायरत्नसार : चतुर्थ अध्याय
|३५ गये हैं, वे अलौकिक पारमार्थिक-आप्त के ही बताये गये हैं । पारमार्थिक आप्त ही पूर्ण आप्त होता है। न्यायशास्त्र के अनुसार "यो यत्रावञ्चकः स तत्राप्तः" जो जिस विषय में धोखा नहीं देता है वह वहाँ आप्त है ऐसा कहा गया है । इस कथन के अनुसार लौकिक जनकादि प्रामाणिक पुरुष होने से लौकिक आप्त कोटि में परिगणित कर लिये गये हैं । तथा मुक्तिमार्ग के उपदेश में धोखा नहीं देने से तीर्थकर आदि प्रामाणिक पुरुष पारमार्थिक आप्त-अलौकिक आप्त-पूर्ण आप्त कहे गये हैं ।।३।। शब्द द्वारा अर्थबोध का कथन :
सूत्र-स्वार्थप्रकाशनशक्तिः शम्दानां सहजाऽपि संकेत सहकृतया तयाऽर्थ-बोधः॥ ४ ॥
अर्थ-शब्दों में अपने वाच्यार्थ को प्रकाशन करने की शक्ति स्वाभाविक है परन्तु फिर भी वह सङ्कत से सहकृत होकर ही अपने वाच्यार्थ का बोधक होता है।
ध्याख्या-शब्द के द्वारा हमें अर्थज्ञान कैसे होता है ? इस प्रश्न का उत्तर इस सूत्र द्वारा दिया गया है। इसमें यह समझाया गया है कि शब्द में स्वार्थ प्रकाशन की शक्ति स्वाभाविक है । परन्तु यह शक्ति सङ्केत से सट्टकृत होकर ही अपने बाच्यार्थ का प्रकाशन करती है । अमुक शब्द अमुक अर्थ का बाचक है । जब तक इस प्रकार के राङ्कत से शब्द सहकृत नहीं होता है तब तक वह अपने वाच्यार्थ का बोध नहीं करा सकता है ।। ४ ।। शब्द का लक्षण :
सूत्र-वर्णपदवाक्यात्मक शब्दः ।। ५ ।।
व्याख्या-- शब्द तीन प्रकार के होते हैं-एक वर्णात्मक, दूसरे पदात्मक और तीसरे वाक्यात्मक, जैसे--अ, आ, इ, ई आदि शब्द वर्णात्मक शब्द हैं। इन के एकाक्षरी नाम माला में कृष्ण आदि अनेक अर्थ कहे गये हैं। घट पट आदि रूप जो शब्द हैं वे पदात्मक शब्द हैं। ये घटरूप एवं वस्त्ररूप अर्थ के बोधक होते हैं। जिनदत्त आता है, महेश जाता है इत्यादि रूप जो शब्द हैं ये वाक्यात्मक शब्द है और इनसे जिनदत्त के आने का और महेश के जाने का बोध होता है । सू. ५॥ वर्ण का लक्षण :
सूत्र-कथंचिनित्यानित्यात्मकः पौद्गलिकः स्वर-व्यञ्जन रूपोवर्णः ॥ ६ ॥
अर्थ-अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ, लु, लु (दीर्घ) ए, ऐ, ओ, औ ये १४ स्वर और क्, ख, ग, घ, ड्, च्, छ्, ज, झ्., , , , , ण, त्. थ्, द्, ध्, न्, , , , , म्, य, र, ल, व्, श्, स्. ए,
और ह, ये ३३ व्यञ्जन हैं, इन सबके भिन्न-भिन्न अर्थ एकार्थनाममाला में लिखे हुए हैं । वर्ण भाषा वर्गणा रूप पुद्गल से निष्पन्न होने के कारण उसे यहाँ पोद्गलिक प्रकट किया गया है । ये किसी अपेक्षा से नित्य और किसी अपेक्षा से अनित्य माने गये हैं ।।६।। पद का लक्षणः
सूत्र - परस्परापेक्षवर्णानां निरपेक्षसमुदायः पर्व तथाविध पद समुवायएच वाघम् ॥७॥
अर्य--परस्पर की अपेक्षा वाले वर्णों का पदान्तरवर्ती वर्गों की अपेक्षा बिना का जो समुदाय है वही पद का लक्षण है, तथा परस्पर की अपेक्षा वाले पदों का पदान्तरवर्ती पदों की अपेक्षा बिना का जो समुदाय है वह वाक्य का लक्षण है।