________________
न्यायरत्नसार : चतुर्थ अध्याय ही रह जाता है और इस तरह लोहार निधीप लग से नहीं पा सकता है। अतः अबाधरूप से लोक व्यवहार चलता रहे और वस्तु का प्रतिपादन भी पूर्णरूप से हआ मान लिया जावे--इसके लिए यह सकलादेशरूप युक्ति काम में लाई गई है। इससे हमें वस्तु के पूर्णरूप से प्रतिपादन करने में यह सहारा मिला कि जिस एक वस्तुगत धर्म को हम मुख्य रूप से प्रतिपादन करते हैं उस एक धर्म से ही हम शेष बचे हुए धर्मों को अभिन्न मान लेते हैं । इस प्रकार एक धर्म के प्रतिपादित होने पर उस वस्तु का उस शब्द द्वारा पूर्णरूप से प्रतिपादन हो गया मान लिया जाता है । इसे यों समझना चाहिये-हमें अस्तित्व धर्म के साथ अन्य धर्मों का अभेद करना है तो वह इस प्रकार से होगा-घटादि पदार्थ में जिस काल में अस्तित्व है उसी काल में उसमें अन्य धर्म भी हैं, यह काल की अपेक्षा अस्तित्व के साथ अन्य धर्मों की अभेदवृत्ति या अभेद का उपचार है। जिस प्रकार अस्तित्व धर्म घट-पटादि पदार्थ का स्वभाव है उसी प्रकार अन्य धर्म भी उसके स्वभाव हैं, यह स्वभाव की अपेक्षा अभेदवृत्ति या अभेदोपचार है। जिस प्रकार घटादि पदार्थ अस्तित्व धर्म के आधारभूत हैं उसी प्रकार से वे अन्य धर्मों के भी आधारभूत हैं, यह अर्थ की अपेक्षा अभेदवृत्ति या अभेदोपचार है। जिस प्रकार घटादि पदार्थ का और अस्तित्व धर्म का तादात्म्य सम्बन्ध है वही सम्बन्ध अन्य धर्मों का उस घटादि पदार्थ के साथ है, यह सम्बन्ध की अपेक्षा अभेदत्ति या अभेदोपचार है। अस्तित्व धर्म के द्वारा जो अपने स्वरूप में अनुरागरूप उपकार किया जाता है वही उपकार शेष धर्मी द्वारा भी किया जाता है, यह उपकार की अपेक्षा अभेदवृत्ति या अभेदोपचार है। इसी प्रकार से गुणि देश, संसर्ग और शब्द की अपेक्षा भी अभेद वृत्ति या अभेदोपचार समझ लेना चाहिये । अभेदवृत्ति द्रव्याथिकनय की प्रधानता से होती है और अभेद का उपचार पर्यायाथिकनय की प्रधानता से होता है । इस तरह अनन्तधमत्मिक वस्तु का प्रतिपादन करने वाला प्रमाणवाक्य कहा गया है । इसी का नाम सकलादेश है ॥२६॥ विकलादेश का स्वरूप :--
सूत्र--एकधर्म मुखेन मेदं कृत्वा वस्तु तिपादकवाक्यत्वं विकलादेशत्वम् ॥२७॥
व्याख्या यस्तुगत अनन्त धर्मों को भिन्न-भिन्न मानकर किसी एक धर्म की प्रधानता करके वस्तु का प्रतिपादन करने वाला वाक्य विकलादेशक कहा गया है । जैसे-.-"जीवः स्यादस्तिरूपः" स्वद्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा जीव अस्तित्व धर्मविशिष्ट है। यहाँ जीव द्रव्य के अनन्त धर्मों में एक अस्तित्व धर्म को लेकर उसका उसके द्वारा प्रतिपादन किया गया है । यही नयवाक्य है और इसी का नाम विकलादेशक है ॥ २७ ॥ ज्ञान के द्वारा प्रतिनियत पदार्थ की व्यवस्था :
सूत्र-विषयाजन्यमपि शानं स्वावरणक्षयोपशमादिना तं प्रदीपवत्प्रकाशयति ॥ २८ ॥
अर्थ-ज्ञान पदार्थ से उत्पन्न नहीं होता है फिर भी वह अपने आवरण कर्म के क्षयोपशम आदि में विशिष्ट होकर उस पदार्थ को प्रदीप की तरह प्रकाश करता है।
व्याख्या----किन्हीं दार्शनिकों का ऐसा मन्तव्य है कि जिस पदार्थ को ज्ञान जानता है वह उस पदार्थ से उत्पन्न हुआ होता है, नहीं तो वह उसे नहीं जान सकता और पदार्थ उत्पन्न नहीं होकर भी ज्ञान यदि पदार्थों को जानने वाला कहा जावे तो फिर ऐसे ज्ञान से प्रतिनियत पदार्थ की व्यवस्था भी नहीं बन सकती है। अतः पदार्थ से उत्पन्न होकर ही ज्ञान उस पदार्थ को जानता है । ऐसा मानना चाहिये । इसके ऊपर १. इसके लिए त्यामरत्नावली टीका को देथना चाहिये ।