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न्यायरत्नसार तृतीय अध्याय
| २३ तीन के अतिरिक्त और भी दो अधिक लक्षण किन्ही किन्ही दार्शनिकों ने माने हैं, वे अबाधित विषय और असत्प्रतिपक्ष हैं । "अग्निरनुष्णो द्रव्यत्वात् जलवत्" इस अनुमान प्रयोग में द्रव्यत्व हेतु का विषय जो अनुors है वह अग्नि में प्रत्यक्ष प्रमाण से वांधित है, क्योंकि अग्नि गरम होती है। ऐसी बाधित विषयता हेतु में नहीं होनी चाहिये। इसी प्रकार हेतु को असत्प्रतिपक्ष भी होना चाहिये। सत्प्रतिपक्ष वाला हेतु अपने साध्य का साधक नहीं हो सकता । इस प्रकार त्रिरूपता या पंचरूपता हेतु का लक्षण मानने में आपत्ति केवल इतनी ही है कि अनेक हेतु विरूपता या पंचरूपता के बिना भी साध्य को सिद्ध करते हैं। क्योंकि सभी हेतु साध्य के साथ रहने वाले नहीं होते, कोई सहभावी होते हैं और कोई क्रमभावी होते हैं। धूम अग्नि के साथ रहता है अतः इसमें पक्षधर्मता भले हो परन्तु जो क्रमभावी हैं उनमें पक्षधर्मता कैसे रह सकती है ? जैसेएक मुहूर्त के बाद शकटनक्षत्र का उदय होगा क्योंकि कृतिका का उदय हो रहा है। यहां दोनों नक्षत्रों का उदयकाल भिन्न-भिन्न है अतः कृतिकोदय हेतु में पक्षधर्मता नहीं बन सकती फिर भी हेतु अपने साध्य का गमक होता है। अतः हेतु का अविनाभाव ही ठीक-- निर्दोष लक्षण है ॥ २८ ॥
दृष्टान्त का लक्षण -
सूत्र - अविनाभावप्रतिपत्तेरास्पवं दृष्टान्तः ॥ २९ ॥
अर्थ-साध्य और साधन आपस में गम्य गमक होते हैं। साध्य गम्थ होता है और साधन समक होता है। इन दोनों का जो अविनाभाव सम्बन्ध है— अग्नि के बिना धूम नहीं हो सकता है ऐसा जो साध्य के बिना साधन का नहीं होना है— इस सम्बन्ध को समझने का --- जानने का जो स्थान है उसका नाम दृष्टान्त है । साधन द्वारा साव्य की सिद्धि करने में दिया गया दृष्टान्त उन दोनों की व्याप्ति का स्मरण कराने से वादी और प्रतिवादी दोनों को मान्य होता है ।। २६ ।।
दृष्टान्त की द्विविधता
सूत्र - साधर्म्य - वैधध्यां स द्विविधः ।। ३० ।।
अर्थ -
दृष्टान्त दो प्रकार का कहा गया है एक साधर्म्य दृष्टान्त और दूसरा वैधर्म्य दृष्टान्त । व्याख्या - दृष्ट प्रत्यक्ष से अवलोकित साध्य और साधन की अन्वय और व्यतिरेक के द्वारा जिसमें साध्यसाधनभाव की व्यवस्थिति का - व्याप्ति का कारणभूत अन्त ज्ञान हो गया होता है वह है | साधर्म्य दृष्टान्त जब पर्वतादि प्रदेश में धूमरूप साधन द्वारा अग्निरूप साध्य सिद्ध किया जाता है महानसादि रूप होता है। क्योंकि साध्य साधन का दृष्टान्त में रहना या तो अन्वय द्वारा जाना जा सकता है या व्यतिरेक के द्वारा । जहाँ पर साध्य - अग्नि आदि के अभाव में उसके गमक साधन - धूमादिक का अवश्य अभाव दिखाया जाता है वह वैधर्म्य दृष्टान्त है । साधर्म्य दृष्टान्त को अन्वय दृष्टान्त और वैधर्म्य दृष्टान्त को व्यतिरेक दृष्टान्त भी कहा गया है ॥ ३० ॥
अन्वयव्यतिरेक का लक्षण :
सूत्र - अन्वयव्याप्तिप्रदर्शन स्थल साधर्म्य दृष्टान्तः ॥ ३१ ॥
व्यतिरेकव्याप्तिप्रदर्शनस्थल वैधर्म्य दृष्टान्तः ॥ ३२ ॥
अर्थ - जहाँ पर साध्य और साधन की अन्वयरूप व्याप्ति दिखाई जाती है अर्थात् जहाँ-जहाँ धूम होता है, वहाँ वहाँ अग्नि होती है ऐसा धूम और अग्नि का साहचर्य सम्बन्ध प्रतिपाद्य को समझाया
१. मुहूत्तन्ति बाटोदयं भविष्यति कृत्तिकोदयात् परीक्षामुखे ।