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न्याय रत्नसार : तृतीय अध्याय
| २६ शान का अभाव अनुमित हो जाता है। इसी तरह "तराजू का पहिला पलड़ा नीचा नहीं है क्योंकि दूसरा पलड़ा नीचा है । यहाँ प्रतिषेध्य पलड़े का नौचापन है उसके विरुद्ध उसका ऊँचापन है और इसका सहचर है दूसरे पलड़े का नीचापन । उसकी उपलब्धि से पहिले पलड़े का नीचापन का अभाव अनुमित हो जाता है" यह कथन भी इसी के अन्तर्गत जानना चाहिये ॥५३ ।। अविरुद्धानुपलब्धि-प्रतिषेधरूप प्रतिषेध साधिका का यह हेतु का तीसरा भेद है--इसका स्पष्टीकरण :
सूत्र-प्रतिषेध्याविरुद्धानुपलब्धिः प्रतिषंधानुमितों सप्तविधा-प्रतिवेष्याविरुद्ध स्वभावध्यापक-कार्य-कारण-पूर्वोत्तर सहचरानुपलब्धिभेदात् ।। ५४ ।
व्याख्या- यह प्रकट ही किया जा चुका है कि अनुपलब्धिरूप जो हेतु होता है वह भी विधिसाधक और प्रतिषेधसाधक होता है । अनुपलब्धि मूल में दो प्रकार की कही गई है-अविरुद्धानुपलब्धि (१), और विरुद्धानुपलब्धि (२) । इनमें प्रतिषेध्य साध्य से अविरुद्ध हेतु की जहाँ अनुपलब्धि है वह प्रतिषेध साधक ही होती है, यह प्रतिषेध-साधिका अविरुद्धानुपलब्धि सात प्रकार की कही गई है। जैसे-प्रतिषेध्य से अविरुद्ध स्वभाव की अनुपलब्धि (१), प्रतिषेध्य से अविरुद्ध व्यापक की अनुपलचि (२), प्रतिषेध्य से अविरुद्ध कार्यरूप हेतु की अनुपलब्धि (३), प्रतिषेध्य साध्य मे अविरुद्ध कारण की अनपलब्धि (४), प्रतिषध्य साध्य से अविरुद्ध पूर्वचर की अनपलब्धि (५), प्रतिषेध्य साध्य से अविरुद्ध उत्तचर की अनुपलब्धि (६), और प्रतिषध्य साध्य से आवरुद्ध सहचर की अनुमति) ४ . .
सूत्र-इह भूतले घटो नास्ति उपलब्धिलक्षण प्राप्तस्याप्यनुपलम्भादिति प्रतिषेध्याविरुद्ध स्वभावानुपलब्धेदाहरणम् ॥ ५५ ॥
____ अर्थ-इस भूतल में घड़ा नहीं है क्योंकि वह उपलब्ध होने योग्य होने पर भी उपलब्ध नहीं हो रहा है। इस अनुमान में प्रतिषेध्य कुम्भ हैं । इसका अविरुद्ध स्वभाव होने पर उपलम्भ होना है, पर वह उपलब्ध नहीं हो रहा है । अतः यह घड़े के प्रतिषेध को सिद्ध करता है । यह अविरुद्धस्वभावानुपलब्धि का उदाहरण है ।। ५५ ।। अविरुद्धव्यापकानुलब्धि का उदाहरण :--
सत्र-अस्मिन् प्रदेशे शिशपा नास्ति वृक्षानुपलब्धेरिति प्रतिषेध्याविरुद्ध व्यापकानुफ्लन्ये, ।।५६॥
अर्थ-प्रतिषेध्याविरुद्ध व्यापकानुपलब्धि का उदाहरण इस प्रकार से है । जैसे—इस प्रदेश में शिशपा नहीं है क्योंकि वृक्ष की उपलब्धि नहीं है यहाँ प्रतिषेध्य शिशपा है उसका अविरुद्ध व्यापक वक्ष है, उसकी अनुपलब्धि होने से शिशपा के अभाव की अनुमिति हुई है । क्योंकि व्यापक के अभाव में व्याप्य का अभाव रहता है ॥ ५६ ।।
सूत्र-अस्मित् केदारेऽप्रतिहतशक्तिक बीजं नास्ति अंकुरानुपलम्भादिति प्रतिषेध्याविरुद्ध कार्यानुपलब्धेः ।। ५७ ।।
अर्थ---इस खेत में अप्रतिहत शक्ति वाला बीज नहीं क्योंकि यहाँ अंकुर की उपलब्धि नहीं हो रही है 1 जिसकी शक्ति मन्त्र आदि से रोक न दी गई हो या पुराना होने से स्वभावतः नष्ट न हो गई हो वह अप्रतिहत शक्ति बाला कहलाता है । यहाँ प्रतिषध्य अप्रतिहत शक्ति वाला वीज है । उसका अविरुद्ध कार्य अंकूर है सो इस अंकुर की अनुपलब्धि से अप्रतिहत शक्ति वाले बीज का अभाव अनुमित किया गया है ॥ ५७ ॥