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न्यायरत्नसार : प्रथम अध्याय
विपर्यय का लक्षण :
सूत्र-अतस्मिस्तववाहि ज्ञानं विपर्ययः ॥ ८॥ अर्थ-जो पदार्थ जैसा नहीं है, उसे उस प्रकार का जानने वाला ज्ञान विपर्यय ज्ञान है।
व्याख्या-विपर्यय ज्ञान का लक्षण इस सूत्र द्वारा स्पष्ट करते हुए सूत्रकार ने यह समझाया है कि जब चक्षुरादि इन्द्रियगत दोष आदि के कारण द्रष्टा को चाँदी में सीप का ज्ञान, या रस्सी में सर्प का भान होता है, उस समय यह ज्ञान हुआ माना जाता है । इस ज्ञान के द्वारा वास्तविक पदार्थ का निर्णय नहीं हो पाता है, प्रत्युत विपरीत ही पदार्थ का निर्णय हो जाता है। सीप से विपरीत चाँदी है और रस्सी से विपरीत सर्प है । इस तरह विपर्यय ज्ञान वाला व्यक्ति जो पदार्थ है उसका तो निश्चय नहीं कर पाना है और जोगाथेनसमापनय कर लेता है। इसी कारण ऐसे विपरीत एक क कोटि के निश्चय करने वाले ज्ञान को विपर्यय कहा गया है। विपर्यय ज्ञान और संशयज्ञान में यही भिन्नता है कि संशय ज्ञान में परस्पर विरुद्ध अनेक अंशों का निश्चय नहीं हो पाता है और विपर्यय ज्ञान में एक विरुद्ध अंश का निश्चय हो जाता है ॥ ८ ॥ अनध्यवसाय का लक्षण :
सूत्र-विशेषाध्यवसायविहीनं ज्ञानमनध्यवसायः ।। ६॥
अर्थ-विशेषांश को ग्रहण नहीं करके जो केवल 'यह कुछ है' इस प्रकार से सामान्यांश को ग्रहण करने वाला बोध होता है, वही अनध्यवसाय है।
व्याख्या--प्रत्येक पदार्थ सामान्य और विशेष धर्मों वाला माना गया है। सामान्य पदार्थ अर्थक्रियाकारी नहीं होता। अर्थक्रियाकारी विशेष पदार्थ ही होता है, अतः वस्तु के विशेषांश को नहीं जानने वाला और केवल सामान्यांश को ही जानने वाला जो बोध होता है, जैसे-रास्ते में चलते हुए पुरुष को तृणादि का स्पर्श हो जाने पर कुछ स्पर्श हुआ है, ऐसा जो ज्ञान होता है वही अनध्यवसाय ज्ञान है। बौद्धों द्वारा मान्य निर्विकल्पकदर्शन इसी अनध्यवसायरूप होता है । यह ज्ञान संशय ज्ञान से बिलकुल जुदा है, क्योंकि संशयज्ञान में विशेष का स्पर्श होता है, पर इसमें तो उसका स्पर्श तक भी नहीं होता है ।। ६ ।। पर का अर्थ :
सूत्र--शानस्वरूपमित्र जयार्थः परः ।।१०।।
अर्थ-ज्ञान के स्वरूप से भिन्न जो ज्ञेयरूप अर्थ है, वहीं पर है । जान में प्रमाणता इसी ज्ञेयरूप बाह्य पदार्थ के जानने से ही आती है, केवल अपने आपको जानने से नहीं।
व्याख्या प्रमाण का लक्षण कहते समय जो ज्ञान का विशेषणभूत 'पर' शब्द है उसका वाक्यार्थ सत्यरूप से प्रकट करने के लिये ही सूत्रकार ने इस सूत्र का निर्माण किया है। बाहः पदार्थ घट-पटादिशेयार्थ-के विषय में माध्यमिक सिद्धान्त स्वप्नोपलब्ध पदार्थ की तरह ये मिथ्या हैं, ऐसी मान्यता वाला है। इसी तरह वह आन्तरिक पदार्थों को आत्मा, प्रमाण-ज्ञान आदि को भी सर्वथा असत् कहता है । वेदान्ती बाह्य पदार्थ को असत् मानते हैं, आन्तरिक पदार्थ को सत्स्वरूप मानते हैं। इनकी मान्यतानुसार ब्रह्म
१. बह्म एव इदं सर्व, नेह नानास्ति किञ्चन । आरामं तस्य पश्यन्ति, न तस् पश्यति कश्चन ।।