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तृतीयोऽध्यायः
स्थान मासी गन्दी विसि :-.
सूत्र-जैनमुनिरहंदादि गुणोत्कीर्तनादि स्थानसेवित्वात् स्थानकवासी ॥१॥
अर्थ-जैन मुनि अर्हन्त, सिद्ध आदि के गुणों के उत्कीर्तन करने आदि रूप २० स्थानों में बसने के कारण सेवन करने के स्वभाव वाला होने के कारण स्थानकवासी सिद्ध होता है।
यास्या- इससे पहले प्रथम अध्याय में प्रमाण की प्ररूपणा एवं द्वितीय अध्याय में उसके भेद के अन्तर्गत हुए प्रत्यक्ष प्रमाण की प्ररूपणा करने में आई है। अब इस तृतीय अध्याय में परोक्ष प्रमाण के भेद रूप अनुमान प्रमाण की प्ररूपणा करने के लिये उसका सूचक ही यह सुत्र कहा गया है। परोक्ष प्रमाण का सर्वप्रथम यहां पर लक्षण न कहकर जो स्थानकवासित्व का कथन किया गया है वह अर्हन्त प्रभु द्वारा उपदिष्ट अनादि कालिक मार्ग है, इस बात को प्रकट करने के लिये कहा है। वे अनादिकालीन २० स्थान इस प्रकार हैं-अर्हद्गुणोत्कीर्तन (१) सिद्धगुणोत्कीर्तन (२) प्रवचन गुणोत्कीर्तन (३) गुणवद्गुरुगुणोत्कीर्तन (४) स्थविर गुणोत्कीर्तन (५) बहुश्रु त गुणोत्कीर्तन (६) तपस्विगुणोत्कीर्तन (७) तथा इन सब के ज्ञान के विषय अर्थात् प्रवचन में बारम्बार निरन्तर ज्ञानोपयोग रखना (८) दर्णनविशुद्धि (९) गुरुदेवादि विषयक विनय (१०) उभय काल आवश्यककरण (११) निरतिकार भीलवत पालन (१२) क्षण लव आदि कालों में प्रमाद छोड़कर शुभ ध्यान करना (१३) बारह प्रकार के तप का पालना (१४) अभय दान देना, सुपात्र दान देना (१५) आचार्यादिकों की सेवा शुश्रुषा करना (१६) समाधि सर्व जीवों को सुखी करने का भाव रखना (१७) अपूर्व ज्ञान का ग्रहण और उसके साधनों का अध्ययन करना (१८) न तभक्ति-जिनोक्त आगम में परम अनुराग रखना (१९) प्रवचन प्रभावना (२०) अनेक भव्यों को दीक्षा देना, जिनशासन की महिमा वृद्धिंगत करना, जीवों को जिनशासन का रसिक बनाना, मिथ्यात्व रूपी तिमिर का निवारण करना एवं चरण सत्तरी और करण सत्तरी की शरण में रहना । इस प्रकार के ये २० स्थान हैं | साधुजन इन २० स्थानों में ही अनादि काल से वसते चले आ रहे हैं । अतः इनमें स्थानकवासिता अनादि काल से है, यह बात स्पष्ट हो जाती है ॥ १ ॥ स्थानकवासिता में प्रशस्तता कथन :
सूत्र-प्रशस्तः खलु स्थानकवासी मुनिस्तथाविध विशतिस्थान समाराधकत्वेन तीर्यकृदगोत्रोपार्जकत्वात् ।। २॥
अर्थ-स्थानकवासी मुनि श्रीष्ट है क्योंकि वह पूर्वोक्त २० स्थानकों का समाराधक होने से तीर्थकर प्रकृति का बन्धक होता है ।