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न्यायरत्नसार : तृतीय अध्याय
व्याख्या-वैशद्य का स्वरूप वितीय अध्याय में कहा जा चुका है। इस विशदता से हीन जो जान होता है वहीं परोक्ष प्रमाण का लक्षण है।
प्रश्न-परोक्ष प्रमाण स्व-पर-व्यवसायी होता है या नहीं ?
उत्तर-परोक्ष प्रमाण स्व-पर-व्यवसायी होता है क्योंकि प्रमाण का यही स्व-पर-व्यवमायी होना लक्षण कहा गया है । अतः स्व-पर-व्यवसायी होते हुए जो ज्ञान अस्पष्ट प्रतिभास वाला होता है वही परोक्ष होता है ऐसा जानना चाहिये ।। ६ ।। परोक्ष प्रमाण के भेद :---
सूत्र-स्मृति-प्रत्यभिज्ञा-तर्फानुमानागमभेदात्तत्मचविधम् ॥ ७ ॥
अर्थ-परोक्ष प्रमाण पाँच प्रकार है-स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, तर्क, अनुमान और आगम ।। ७ ।। स्मृति का लक्षण :
सूत्र-पूर्वानुभूतविषयकं तत्तोल्लेखिजानं स्मतिः ॥ ८ ॥
अर्थ-प्रत्यक्षादि किसी भी प्रमाण से जाने गये पदार्थ को जानने वाला तथा "बह" इस प्रकार के आकार वाला जो ज्ञान है उसी का नाम स्मृति है।
व्याख्या-स्मरण ज्ञान पहले जाने गये पदार्य का ही होता है। इस स्मरण को उत्पन्न कराने वाला धारणा नाम का संस्कार होता है। धारणा प्रात्मा में ऐसा संस्कार पैदा कर देती है कि जिससे किसी निमित्त के मिलने पर उस अनुभूत पदार्थ की स्मृति हो जाया करती है। बिना धारणा के स्मृति नहीं होती. यह पहले बताया जा चुका है । जो ज्ञान दूसरे ज्ञान की सहायता की अपेक्षा रखता है नह परोक्ष होता है। यहाँ पर स्मरण वारणा की अपेक्षा रखता है, इसलिये वह परोक्ष है । वहाँ स्मृति का लक्षण विषय, कारण और आकार ये तीन बातें प्रकट की गई हैं । पूर्वानुभूत पदार्थ एस का विषय है, धारणा इसका कारण है और "वह" इसका आकार है। कुछ लोग स्मरण बो प्रमाण नहीं मानते हैं । पर स्मरण को प्रमाण माने बिना अनुमान प्रमाण उत्पन्न ही नहीं हो राकला है तथा लौकिक व्यवहार भी नहीं चल सकता है। अतः स्मृति को प्रमाण अवश्य मानना चाहिये ।। ८ ।। प्रत्यभिज्ञा प्रमाण का लक्षण :
सूत्र-प्रत्यक्ष-स्मृतिजकत्वावि संकलनात्मिका संवित प्रत्यभिज्ञा ॥६॥
अर्थ—प्रत्यक्ष और स्मृति के मिलने से जो एकत्वादि की संकलना करने रूप ज्ञान होता है उसका नाम प्रत्यभिज्ञा है।
व्याख्या प्रत्यभिज्ञा ज्ञान को उत्पन्न करने वाले दो ज्ञान हैं--एक तो प्रत्यक्ष और दूसग स्मरण । इसका विषय पूर्व और उत्तर दशा व्याणी एकत्व आदि होता है।
स्मृति और अनुभव के मिलने से जो जोड़रूप ज्ञान होता है उसी का नाम प्रत्यभिज्ञा ज्ञान है। जैसे—यह वही मनुष्य है जिसे चम्पा नगरी में देखा था। यहाँ पर वर्तमान में उस मनुष्य का प्रत्यक्ष हो रहा है और चंपामगरी में देखने का स्मरण हो रहा है । इन दोनों ज्ञानों के मिल जाने से यह प्रत्यभिज्ञा नाम का एक तीसरा ही ज्ञान उत्पन्न हुआ है । इसके एकत्व प्रत्यभिज्ञा, सादृश्य प्रत्यभिज्ञा आदि अनेक भेद हैं। पदार्थ की पूर्व अवस्था और उत्तर अवस्था वर्ती एकत्व को विषय करने वाला एकत्त्र प्रत्यभिज्ञा ज्ञान