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न्यायरत्नसार : द्वितीय अध्याय धूम से कर लेता है। अब शिष्य को जो धूम के प्रत्यक्ष हो जाने से परोक्ष अग्निरूप पदार्थ का अनुमान रूप ज्ञान हआ है, वह ज्ञान परोक्ष है। इस परोक्ष ज्ञान में और दृश्यमान धम के ज्ञान में निर्मलता को अन्तर है । धूम को जानने के लिए हमें किसी अन्य ज्ञान की आवश्यकता नहीं है और अग्नि का अनुमान करने के लिये धूम को जानने की आवश्यकता है । धूम-ज्ञान में निर्मलता है, अग्नि-ज्ञान में निर्मलता नहीं हैं, क्योंकि अग्निज्ञान का विषय अग्निरूप पदार्थ लकड़ी की अग्नि है या छोणे की अग्नि है इस रूप से स्पष्ट प्रतिभास वाला नहीं है । यह प्रतिभाम तो वहाँ जाने पर प्रत्यक्ष से हो हो सकता है । इसलिये अनुमानादिरूप परोक्ष प्रमाण में निर्मलता असंभावित है, यह तो प्रत्यक्ष प्रमाण में ही संभावित है, ऐसा जानना चाहिये ।।३॥ प्रत्यक्ष के भेद :
सूत्र-सांव्यवहारिक-पारमाथिकाभ्यां प्रत्यक्षं विविधम् ।। ४ ॥ ___ अर्थ-मांव्यवहारिक प्रत्यक्ष और पारमार्थिक प्रत्यक्ष के भेद से प्रत्यक्ष दो प्रकार का कहा गया है।
___ व्याख्या -जो प्रमाण वास्तव में प्रत्यक्ष तो नहीं है, किन्तु अन्य परोक्ष प्रमाण की अपेक्षा कुछएकदेश-स्पष्ट होने से लोक व्यवहार में प्रत्यक्ष मान लिया जाता है, वह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है । वैसे देखा जाय तो इन्द्रियजन्य होने के कारण यह प्रत्यक्ष परोक्ष ही है। यद्यपि इन्द्रियजन्य ज्ञान अनुमान आदि परोक्ष ज्ञानों की अपेक्षा निर्मल अवश्य होता है. पर वह पूर्ण रूप से निर्मल नहीं होता 1 इसीलिये प्रत्यक्ष केदारहारिक र पारमार्थिवः को दो मेदगो गये हैं। पारमायिक प्रत्यक्ष में पूर्ण निर्मलता रहती है, क्योंकि यह ज्ञान इन्द्रियादिकों की सहायता के बिना केवल आत्मा से ही उत्पन्न होता है ।। ४ ॥ सांच्यबहारिका प्रत्यक्ष का लक्षण :
सूत्र - इन्द्रियानिन्द्रियज देशतो विशदं सांव्यवहारिकम् ॥ ५॥
अर्थ- चक्षुरादिक इन्द्रियों से और अनिन्द्रिय रूप मन से पदार्थ का जो एकदेश निर्मलता लिये हुए ज्ञान होता है वह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है । यह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष इन्द्रियज और अनिन्द्रियज के भेद से दो प्रकार का कहा गया है।
व्याख्या-इन्द्रियज सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष में इन्द्रियों की प्रधानता एवं मन की सहायता रहती है, तथा अनिन्द्रियज प्रत्यक्ष में मन की प्रधानता रहती है ।। ५ ।।
सत्र-श्रोत्रादि भेदाज्शानेन्द्रियाणि पञ्च॥६॥ अर्थ--थोत्र, चक्षु, घ्राण, रसना, और स्पर्शन---इस प्रकार से इन्द्रियां पाँच होती हैं।
व्याख्या-श्रोत्रादिक ये पाँच इन्द्रियाँ ज्ञानजनक होने से ज्ञानेन्द्रियाँ कही गई हैं । यहाँ पर इन्ही का प्रकरण है, कर्मेन्द्रियों का नहीं । ज्ञानेन्द्रियाँ पाँच ही होती हैं, न कम होती हैं और न अधिक होती हैं। इन्द्रियनामकर्म के उदय से इनकी रचना होती है, ये संसारी आत्मा के लिङ्ग रूप से कही गई हैं ॥ ६ ।। इन्द्रियों के भेद :
सूत्र-व्रव्यमावभेवात्प्रत्येकमिन्द्रियं द्विविधम् ॥ ७ ।। अर्थ-द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय के भेद से प्रत्येक इन्द्रिय दो प्रकार की कही गई है।
व्याख्या-जो पुद्गल और आत्म-प्रदेश भिन्न-भिन्न इन्द्रियाकाररूप से रचना वाले हो रहे हैं वह द्रव्येन्द्रिय है, तथा क्षयोपशमविशेष से होने वाला जो आत्मा का ज्ञान-दर्शनरूप परिणाम है, वह भावेन्द्रिय है।।। ७ ||