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(११) तू यह मान कि 'मेरे अनादि संसाररोग पाइए है, ताके नाश का मोको उपाय करना'. इस विचारतें तेरा कल्याण होगा। (पृष्ट-२८) ।
(१२) जो मोहतै विषयग्रहण की इच्छा है, सोई दुःख का कारण जानना। (पृष्ठ-४३) (१३) अन्य द्रव्य का किछु वश नाहीं, जिनका वश नाहीं तिनिसों काहे को लरिये। (पृष्ठ-४८)
(१४) जो आप शुद्ध होय अर ताको अशुद्ध जान तो भ्रम अर आप कामक्रोधादिसहित अशुद्ध होय रह्या ताको अशुद्ध जानै तो भ्रम कैसे होइ। शुद्ध जानै भ्रम होइ, सो झूटा भ्रम करि आपको शुद्ध ब्रह्म माने कहा सिद्धि है? (पृष्ट-६७)
(१५) जब काल पाय काम-क्रोधादि मिटेंगे अर जानपनांकै मन इन्द्रिय का आधीनपना मिटेगा तब केवलज्ञानस्वरूप आत्मा शुद्ध होगा। (पृष्ट-१८.) .
(१६) ऐसे अपने परिणामनि की अवस्था देखि मला होय सो करना। एकान्तपक्ष कार्यकारी नाहीं । बहुरि अहिंसा ही केवल धर्म का अंग नाहीं है। रागादिकनि का घटना धर्म का अंग मुख्य है। ताते जैसे परिणामनिविषै रागादिक घटै सो कार्य करना। (पृष्ट-१३५)
(१७) अपना उपयोग जैसे निर्मल होय सो कार्य करना। सधै सो प्रतिज्ञा करनी । जाका अर्थ जानिए सो पाट पढ़ना। (पृष्ठ-१३५)
(१८) मंत्रादिक की अंचिन्त्य शक्ति है। (पृष्ठ-१३८) (१६) जिनमतविष संयम धारे पूज्यपनो हो है। (पृष्ठ-१४१)
(२०) जो रागादिक अपने न जाने आपको अकर्ता मान्या, तब रागादिक होने का भय रह्या नाहीं वा रागादिक मेटने का उपाय करना रह्या नाही, तब स्वच्छन्द होय खोटे कर्म बांधि अनन्त संसारविर्ष रुले है। (पृष्ट-१६१)
(२१) एक कार्य होने विषे अनेक कारण चाहिए है। तिनविषे जे कारण बुद्धिपूर्वक होय, तिनको तो उद्यम करि मिलावै अर अबुद्धिपूर्वक कारण स्वयमेव पिनै तब कार्यसिद्धि होय। (पृष्ठ-१६२)
(२२) तातै सर्वथा निबन्ध आपको मानना मिथ्यादृष्टि है। (पृष्ट-१६३)
(२३) केवल आत्मज्ञान ही तें तो नक्षमार्ग होइ नाहीं। सप्त तन्वनि का श्रद्धानज्ञान भए वा रागादिक दूरि किए मोक्षमार्ग होगा। (पृष्ट १६६
(२४) विना प्रतिज्ञा किये अविरत सम्बन्धी बंध पिटै नाहीं। ... तातें बने सो प्रतिज्ञा लेनी युक्त है। बहुरि प्रारब्ध अनुसारि तो कार्य बने ही है, तृ उद्यमी होय भोजनादि काहे को करें है। जो तहाँ उद्यम