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जाय, केवल चिन्मात्र स्वरूप भासने लगे; वहाँ सर्वपरिणाम उस रूप में एकाग्र होकर प्रवर्तते हैं; दर्शन-जानादिक का व नय-प्रमाणादिक का भी विचार विलय हो जाता है।"
__ चैतन्य स्वरूप का जो सविकल्प से निश्चय किया था, उस ही में व्याप्य-व्यापकरूप होकर इस प्रकार प्रर्वत्नता है जहाँ ध्याता-ध्येयपना दूर हो गया । सो ऐसी दशा का नाम निर्विकल्प अनुभव है। बड़े में ऐसा ही कहा है
तच्चाणेसणकाले समय बुझेहि जुत्तिमग्गेण ।
णो आराइण समये पच्चक्खो अणुहवो जम्हा ॥२६६।। शुद्ध आत्मा को नय-प्रमाण द्वारा अवगत कर जो प्रत्यक्ष अनुभव करता है वह सविकल्प से निर्विकल्पक स्थिति को प्राप्त होता है । जिस प्रकार रत्न को खरीदने में अनेक विकल्प करते हैं, जब प्रत्यक्ष उसे पहनते हैं तब विकल्प नहीं है, पहनने का सुख ही है । इस प्रकार सविकल्प के द्वारा निर्विकल्प का अनुभव होता है। इसी चिट्ठी में प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रमाणों के भेद के पश्चात् परिणामों के अनुभव की चर्चा की गई है । कथन की पुष्टि के लिए आगम के ग्रंथों के प्रमाण भी दिये गये है।
पं. टोडरमल पधलेखक के साथ कवि भी है । उनके कविहृदय का पता टीकाओं में रचित पद्यों से प्राप्त होता है । लब्धिसार की टीका के अन्त में अपना परिचय देते हुए लिखा है
मैं हों जीवद्रव्य नित्य चेतना स्वरूप मेरो; लग्यो है अनादि तें कलंक कर्म-मल को । वाही को निमित्त पाय रागादिक भाव भए, भयो है शरीर को मिलाप जैसे खल को ॥
रागादिक भावन को पाय के निमित पुनि, होत कर्मबंध ऐसो है बनाव कलको । ऐसे ही भ्रमत भयो मानुष शरीर जोग, बने तो बने यहाँ उपाय निज थल को ॥