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ग्रन्थ से उपल कतिपय मननीय सूत्रवाक्य
(१) बहुरि त्रिलोकविष जे अकृत्रिम जिनबिम्ब विराजे हैं मध्यलोक विर्ष विधिपूर्वक कत्रिम जिनबिम्ब विराजे हैं, जिनके दर्शनादिकतै एक धर्मोपदेश बिना अन्य अपने हित की सिद्धि जैसे लीर्थकर केवली के दर्शनादिकते होइ तैसे ही होइ, तिनि जिनबिंबनिकों हमारा नमस्कार होउ। (पृष्ट-५)
(२) अरहंतादिविष स्तवनादि रूप भाव हो है सो कषायनि की मन्दता लिये ही हो है तातें विशुद्ध परिणाम हैं। बहुरि समस्त कषाय मिटावने का साधन है, ताः शुद्ध परिणाम का कारण है। (पृष्ठ-६)
(1) इहाँ कोऊ पूछ कि प्रथम ग्रन्ध की आदि विष मंगल ही किया सो कौन कारण? ताका उत्तर - जो सुखस्यौं ग्रन्थ की समाप्तता होइ, पापकरि कोऊ विघ्न न होय, या वासः इहाँ प्रथम मंगल किया है। (पृष्ठ-७)
(४) जो जीवनि के सुख-दुःख होने का प्रबल कारण अपना कर्म का उदय है ताही के अनुसार बाम निमित्त बने हैं। (पृष्ठ-८)
(५) इस जीव का तो मुख्य कर्त्तव्य आगमज्ञान है । (पृष्ट १७) आगमज्ञान बिना और धर्म का साधन होय सके नाहीं। (पृष्ठ-२६१)
(६) रागादिक का कारण तो द्रव्यकर्म है अर द्रव्यकर्म का कारण रागादिक है। (पृष्ट-१६) (७) जिनको बन्ध न करना होय ते कषाय मति करो। (पृष्ट २५)
(८) जैसे मंत्र निमित्तकरि जलादिकविषे रोगादिक दूरि करने की शक्ति हो है वा कांकरी आदिविषै सादि रोकने की शक्ति हो है तैसे ही जीवभाव के निमित्तकरि पुद्गल परमाणुनिविर्षे ज्ञानावरणादिरूप शक्ति हो है। (पृष्ठ-२५)
(E) यहु मतिज्ञान बाह्य द्रव्य के भी आधीन जानना ..... यहु श्रुतज्ञान है सो अनेक प्रकार पराधीन जो मतिज्ञान ताके भी आधीन है, वा अन्य अनेक कारणनि के आधीन है, तात महापराधीन जानना। (पृष्ठ-२६)
(१०) श्वासोच्छ्वास जीवितव्य का कारण है। (पृष्ट-३८)