Book Title: Mokshmarga Prakashak
Author(s): Jawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
Publisher: Pratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh

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Page 17
________________ साहित्यिक व्यक्तित्व पर पूरा प्रकाश पड़ता है । माता पिता की एकमात्र सन्तान होने के नाते टोडरमलजी का बचपन बड़े लाड़-प्यार में बीता । बालक की व्युत्पन्नमति देखकर इनके माता-पिता ने शिक्षा की विशेष व्यवस्था की और वाराणसी से एक विद्वान् को व्याकरण, दर्शन आदि विषयों को पढ़ाने के लिए बुलाया । अपने विद्यार्थी की व्युत्पन्नमति और स्मरण शक्ति देखकर गुरुजी भी चकित थे । टोडरमल व्याकरण सूत्रों को गुरु से भी अधिक स्पष्ट व्याख्या करके सुना देते थे । छः मास में ही इन्होंने जैनेन्द्र व्याकरण को पूर्ण कर लिया। अध्ययन समाप्त करने के पश्चात् इन्हें धनोपार्जन के लिए सिंहाणा जाना पड़ा। इससे अनुमान लगता है कि इस समय तक इनके पिता का स्वर्गवास हो चुका था। वहाँ भी टोडरमल जी अपने कार्य के अतिरिक्त पूरा समय शास्त्र स्वाध्याय में लगाते थे। कुछ समय पश्चात् रायमल्ल जी भी शंका-समाधानार्थ सिंघाणा पहुँचे और इनकी नैसर्गिक प्रतिभा देखकर इन्हें 'गोम्मटसार' का भाषानुवाद करने के लिए प्रेरित किया । अल्प समय में ही इन्होंने इसकी भाषाटीका समाप्त कर ली। मात्र १८-१९ वर्ष की अवस्था में ही गोम्मटसार, लब्धिसार, क्षपणस्तार एवं त्रिलोकसार के ६५००० श्लोकप्रमाण की टीका कर इन्होंने जनसमूह में विस्मय भर दिया | सिंघाणा से जयपुर लौटने पर इनका विवाह सम्पन्न कर दिया गया। कुछ समय पश्चात् दो पुत्र उत्पन्न हुए। बड़े का नाम हरिशचन्द्र और छोटे का नाम गुमानीराम था। इस समय तक टोडरमलजी के व्यक्तित्व का प्रभाव सारे समाज पर व्याप्त हो चुका था और नारों ओर होने की यहाँ उन्होंने समाज-सुधार एवं शिथिलाचार के विरुद्ध अपना अभियान शुरू किया। शास्त्रप्रवचन एवं ग्रंथनिर्माण के माध्यम से उन्होंने समाज में नई चेतना एवं नई जागृति उत्पन्न की। इनका प्रवचन तेरहपंथी बड़े मन्दिर में प्रतिदिन होता था, जिसमें दीवान रतनचन्द, अजबराय, त्रिलोकचन्द महाराज जैसे विशिष्ट व्यक्ति सम्मिलित होते थे। सारे देश में उनके शास्त्रप्रवचन की धूम थी (१८) 1 टोडरमल का जादू जैसा प्रभाव कुछ व्यक्तियों के लिए असह्य हो गया। वे उनकी कीर्त्ति से जलने लगे और इस प्रकार उनके विनाश के लिए नित्य प्रति षड्यंत्र किया जाने लगा। अन्त में वह षड्यंत्र सफल हुआ और युवावस्था में यौवन की कीर्ति अन्तिम चरण में पहुँचने वाली थी कि उन्हें मृत्यु का सामना करना पड़ा। सं. १८२४ में इन्हें आततायियों का शिकार होना पड़ा और हँसते-हँसते इन्होंने मृत्यु का आलिंगन किया । रचनाएँ 1 टोडरमलजी की कुल ११ रचनाएँ हैं, जिनमें सात टीकाग्रंथ और बार भौलिक ग्रंथ हैं। मौलिक ग्रंथों में १. मोक्षमार्गप्रकाशक, २. आध्यात्मिक पत्र, ३. अर्थसंदृष्टि और ४. गोम्मटसारपूजा परिगणित हैं। टीकाग्रंथ निम्नलिखित हैं: १. गोम्मटसार ( जीवकाण्ड )- सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका । यह सं. १८१५ में पूर्ण हुई । २. गोम्मटसार (कर्मकाण्ड ) ३. लब्धिसार 35 " 31 टीका सं. १८९८ में पूर्ण हुई । ४. क्षपणासार वद्यनिका सरस है । ५. त्रिलोकसार इस टीका में गणित की अनेक उपयोगी और विद्वसापूर्ण चर्चाएँ की गई हैं । ६. आत्मानुशासन- यह आध्यात्मिक सरस संस्कृत ग्रंथ है। इसकी वचनिका संस्कृत टीका के आधार पर ७. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय- इस ग्रंथ की टीका अधूरी ही रह गई है।

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