Book Title: Mokshmarga Prakashak
Author(s): Jawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
Publisher: Pratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh

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Page 16
________________ हिन्दी जेन प्राचीन साहित्य में आचार्य कल्प टोडरमल जी द्वारा रचित मोक्षमार्ग प्रकाशक ग्रंच एक आध्यात्म परक दार्शनिक आगम ग्रंथ है। विद्वान लेखक का यह ग्रंथ ९ अधिकारों में लिखा गया है। जो जैनागम का सारभूत ग्रंथ है। संवत् १८२४/२५ में रचित इस ग्रंथ की इतनी लोकप्रियता :बड़ी कि हिन्दी भाषी क्षेत्र के प्रत्येक जिनालय में प्रायः इसके हस्त लिखित प्रतियाँ उपलब्ध होती हैं । सन् १८९७ में श्री बाबू ज्ञानचंद्र जी जैनी लाहौर में सर्वप्रथम इसका प्रकाशन कराया था । सन् १९९१ में श्री नाथूराम जी प्रेमी के शुद्ध बूंडरी भाषा में इसका प्रकाशन कराया । १९३९ में भी दुलीचंद्र जी परवार ने कलकत्ता से, इसके बाद १९४७ में पं. डॉ. लालबहादुर शास्त्री ने ग्रंथमें वर्णित स्त्रोतों के प्रमाणों को खोज कर प्रस्तुत कर एक बहुत श्रम साध्य कार्य किया इसका प्रकाशन जैन संघ मधुरा से किया गया । इसके बाद अनेक स्थानों से दूसरे संस्करण छपे सन् १९६५-६३ से सोनगढ़ द्वारा लागत मूल्य से भी कम में इसका प्रकाशन लगभग ८० हजार प्रतियों में हुआ परंतु उसमें ५७ अगह स्खलन और परिवर्तन उन्होंने किये जिससे ग्रंथ के कतिपय प्रसंग अप्रमाणिक से हो गये । पापि मोक्षमार्ग प्रकाशक अधूरा ग्रंथ है । अतः लेखक की सारी विवक्षाऐं उसमें समाहित नहीं हो सकी क्योंकि वर्ण्य विषय मोक्षमार्ग या रत्नावय था तो उसमें सम्यकदर्शन की चर्चा ही नौवे आध्याय से प्रारंभ हो पाई है। और पं. टोडरमल जी का असमय देहावसान हो गया। प्रस्तुत संस्करण के प्रकाशन का तात्पर्य यह कि किसी भी विषय को अति संक्षेप में निर्णयात्मक ढंग से कह देना अलग बात है और आगम के आलोक में उसे समस्त विवक्षाओं के साथ तालमेल बैठाकर निरूपण करमा अलग बात है । इसलिए कुछ स्थानों पर सामान्य रूप से कही गई बातें प्रश्न चिन्हित हो गई । इसका मुख्य कारण रहा है कि पं. जी के सामने षट्खण्डागम नहीं था । क्योंकि करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रष्यानुयोग की जैसी सूक्ष्माति सूक्ष्म प्ररूपणा यवल, जयपवल, महाथवल महान ग्रंथों में हुई है वैसी सूक्ष्म प्ररूपणा पण्डितजी के सामने नहीं थी। इसके सम्पादन हेतु विद्वान सम्पादक जी ने श्री टोडरमल जी की हस्तलिखित मूल प्रति की फोटो स्टेट कापी को प्रमाणिक प्रति माना है । मूल में सर्वत्र एक अक्षर प्रमाण भी परिवर्तन किए बिना ज्यों का त्यों रखा है और यथा स्थान विशेषार्थ संकलित कर दिए हैं अनेक पाद टिप्पणी भी दिए हैं ऐसे कुल ३६ विशेषार्थ हैं। यह विशेषार्थ उपयुक्त और आवश्यक है। सम्पादकीय इष्टि इतनी ही रही है कि स्थापनाऐं खुलासा हों उन पर आगम के परिप्रेक्ष्य में नयइष्टि से विचार हो तथा ग्रंथों के मत भी सामने हों । ग्रंथकार के हार्द को समझने के लिए और उसके वयं विषय को सही सन्दर्भो सहित सूक्ष्पता से जानने के लिए अनेक स्थलों पर कुछ स्पष्टता लामा आवश्यक समझा गया। इसी प्रयोजन हेतु प्रस्तुत संस्करण प्रकाशित किया गया है । पंडित जी के कथन को आगम की विवक्षाओं और प्रमाणों के आलोक में समझने का एक लघु प्रयाल मात्र है। ऐसा सम्पादक जी का मत है। मोक्षमार्ग प्रकाशक के इस विशेषार्थ सहित सम्पादन के संबंध में देश के महान आचार्यों में आचार्य श्री विमलसागर जी, आचार्य श्री बर्द्धमानसागर जी आचार्य श्री आर्यनंदी जी, आचार्य श्री सुमतिसागर जी, आचार्य श्री सम्भवसागर जी, आचार्य श्री अभिनंदन सागर जी, आचार्य श्री विरागसागर जी, आचार्य श्री भरतसागर जी, उपाध्याय श्री गुप्तिसागर जी, मुनि श्री कामकुमारनंदी जी, मुनि श्री ब्रह्मानंद जी, मुनि श्री श्रुतसागर जी, आर्यिका विशुद्धमति जी, शु. शीतलसागर जी, ब्र. विद्युल्लता जी, डॉ. दरबारीलाल जी कोठिया, डॉ. उदयचंद जी सर्वदर्शनाचार्य, डॉ. पं. पन्नालाल जी सा. आ., प्रोफेसर खुशालचंद जी गोरावाला, पं. श्री रतनलाल जी शास्त्री, पं. श्री सागरमल जी एवं पं. श्री शिवचरणलाल जी की सम्पतियाँ ग्रंथ के प्रथम द्वितीय संस्करण में प्रकाशित

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