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मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ वह श्रेष्ठ हो तो, मरीज़ की आयु लंबी हो और रोग में जल्द ही अच्छा परिणाम मिले तो मेरा यह विनम्र प्रयत्न सफल होगा ।
अपने देश की समस्याओं की वजह से यह पद्धति कितने लोगों तक पहुंचेगी और कितने लोगों के लिए चमत्कारी साबित होगी, वह तो आनेवाला वक्त ही बतायेगा, लेकिन अपने देश के डॉक्टरों को इस विषय में योग्य जानकारी है, ऐसा कह सकते है । अब तक संशोधित सभी औषधियां ६ घंटे बाद पक्षाघात को रोक नहीं सकती हैं, क्योंकि उतने समय में रक्त और ऑक्सीजन की कमी से मस्तिष्क के कई कोषों की मृत्यु हो जाती है ।
(२) एन्टीथ्रोम्बोटिक थेरापी :
अपने देश में यह थेरापी बहुत सरलता से उपलब्ध है और उसका ध्येय रक्त नलिका में हुई गांठ अधिक आगे बढने से रोकना है, जिसमें हीपेरीन, लो मोलेक्यूलर हीपेरिन जैसी एन्टी को एग्यूलन्ट दवाई और एस्पिरिन, क्लोपीडोब्रेल, डाईपाईरीडेमोल, एब्सीक्षीमेब जैसी एन्टीप्लेटेलेट ग्रूप की दवाई तथा एन्कोर्ड जैसी फाईब्रीनोलिटिक ग्रूप की दवाई उपयोग में आती है । ऐसा करने से नुकसान आगे बढने से रुकता है परंतु उसके दुष्प्रभाव से शायद हेमरेज भी हो सकता है, इसलिये उसे योग्य मात्रा में, योग्य टेस्ट तहत उपचार करना चाहिए । टीक्लोपीडीन या क्लोपीडोज़ेल दवाई पक्षाघात के प्रारंभिक केस में कोई खास उपयोगी नहीं लगी, परंतु यह दवाई पक्षाघात दुबारा होने से रोकने में निश्चित ही कामियाब है ।
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करीबन १० से १५ प्रतिशत मरीजों को स्ट्रोक - इन- इवोल्यूशन नामक विचित्र परिस्थिति होती है । विचित्र इसलिये क्योंकि चिह्न शुरु होने के २ से ४ दिन तक दवाई करने के बावजूद पक्षाघात बढ़ता ही जाता है, और अंत में आधा शरीर निष्क्रिय हो जाता है । ऐसा होने की वज़ह यह है की पूरी नलिका क्रमशः अवरुद्ध हो जाती है और एन्टिथ्रोम्बोटिक या एन्टिप्लेटलेट दवाई बीमारी की मात्रा के सामने जरूरी सुरक्षा प्रदान नहीं कर सकती है। दवाई के साथ भी पक्षाघात बढ़ता जाएँ, वह परिस्थिति मरीज़ और उनके आप्तजनों के मन में गलतफहमी पैदा
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