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5- पक्षाघात - लकवा (पेरेलिसिस)
STROKE
प्रयोग हो तो कई बार परिणाम अच्छा आ सकता है । प्रोयूरोकाइनेझ, यूरोकाइनेझ या आर. टी. पी. ओ. दवाईयाँ सामान्यतः उपयोग की जाती है । आजकल बहुत अधिक नयी औषधियां भी इस उपचार के लिए संशोधित हुई है ।
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यह पद्धति इन्ट्राविनस थ्रोम्बोलिसिस से अधिक असरकारक है, क्योंकि दवाई सीधे तौर पर थ्रोम्बोसिस की जगह दी जाती है । यहां दुष्प्रभाव (Complication) भी कम हैं, क्योंकि नियत स्थान पर ही दवाई देनी होती है, इस लिए खूब ही कम मात्रा में उसकी जरूरत पडती है जिससे हेमरेज होने की संभावना भी कम होती है । ओपरेटर के सामने ही DSA के तहत दिये जाने के कारण जमा हुआ रक्त (गांठ) तुरंत पिघल जाए तो इन्जेक्शन बंद भी किया जा सकता है । गांठ को पिघलाने में तकलीफ लगे तो गाईडवायर द्वारा गांठ के अंदर पहुंचकर गांठ तोड़ने की कोशिश अनुभवी ओपरेटर कर सकते हैं । सामान्यतः इस पद्धति से शरीर में अन्य स्थान पर भी दुष्परिणाम स्वरूप हेमरेज नहीं होता । इस पद्धति का मुख्य लाभ यह है की कई बार ६ से २४ घंटे के बाद भी गांठ पिघल सकती है । उसके विरुद्ध इन्द्रावीनस पद्धति में सामान्य नियम अनुसार पक्षाघात होने के सिर्फ तीन घंटे में ही दवाई देनी होती है, इसके बाद उपचार में सफल होने की संभावना कम होती है । इन्ट्रावीनस पद्धति में खास मशीनें या विशेष अनुभव या बड़े अस्पताल आदि की आवश्यकता न होने से वह छोटे केन्द्रों में भी हो सकती है, उसमें सिर्फ आर. टी. पी. ए. दवाई ही उपयोग में लाई जाती है ।
तार्किक और प्रयोगात्मक तरीके से यह सिद्ध हुआ है कि पक्षाघातवाले मरीज़ को तात्कालिक रूप से इन्ट्रावीनस थ्रोम्बोलिसिस शुरू करवा कर बाद में तुरंत ही जहां इन्ट्राआर्टीयल पद्धति उपलब्ध हो वैसे बडे केन्द्रों में ले जाएँ, ऐसा करने से दोनों पद्धतियों का लाभ मरीज़ को मिलेगा और परिणाम दुगुना अच्छा आ सकता है ।
इस विषय में इतना विस्तृत लेख जनजागृति के लिये है । जिससे पक्षाघात के मरीज़ों को अच्छी तरह तात्कालिक सारवार मिल सके और
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