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गुणों के कारण ही वे गृहस्थी की चिन्ताओं से मुक्तप्राय रहते थे तथा इसीलिए शास्त्रसमुद्र के पारगामी हो सके थे। गृहस्थी को चिन्ताओं में उलझा हुआ मानव सरस्वती की आराधना में निमग्न नहीं हो सकता है । इन्हें अपने भाई की अनुकूलता अपने स्नेह के कारण ही प्राप्त हुई थी। उनका कहना है कि अपने आश्रित मनुष्य को यदि स्नेह से युक्त रखना चाहते हो तो उसे सिद्धार्थ - कृतकृत्य करो — उसकी सुख-सुविधा का पूर्ण ध्यान रखो 1 यदि कदाचित् उसे सिद्धार्थ न कर सके तो वह पीड़ित होने पर स्नेह की छोड़कर जल- दुर्जन हो जायेगा । इसका श्लेषमय चित्रण देखिए
अनुमितस्नेहभरं विभूतये विधेहि सिद्धार्थसमूहमाश्रितम् ।
स पीलितः स्नेहमपास्य तत्क्षणात्खलोभवन् केन निवार्यते पुनः ॥ ( १८-१८) स्नेह का भार न छोड़नेवाले ( पक्ष में तेल का भार न छोड़नेवाले ) आश्रित जन को विभूति प्राप्त करने के लिए सिद्धार्थ समूह — कृतकृत्य ( पक्ष में पोल सरसों ) बना लो। क्योंकि पीड़ित किया नहीं कि वह स्नेह ( पक्ष में तेल ) छोड़कर तत्क्षण खलदुर्जन ( पक्ष में खली ) होता हुआ पुन: किसके द्वारा रोका जा सकता है ।
यह भी हो सकता है कि महाकवि हरिचन्द्र स्त्री-रहित हों, इसीलिए उनका छोटा भाई उन्हें एकाकी जानकर उनकी सुख-सुविधा का ध्यान रखता हो और वे स्वयं भी गार्हस्थ्य के चक्र से निवृत्त होने के कारण तत्सम्बन्धी बाकुलता में न पड़कर शारदा देवी की उपासना में संलग्न हो गये हों। इस आशंका का समर्थन इससे भी होता है कि इन्होंने स्त्रां के शरीर का को चित्रण काव्य में किया ससे स्त्री के प्रति
उनका पूर्ण त्रिराग सिद्ध होता है । देखिए --
विण्मूत्रादेर्धा मध्यं वधूनां तष्टिव्यन्दनारमेवेन्द्रियाणि ।
श्रोणीबि स्थूलमांसास्थिकूटं कामान्वानां प्रीतये त्रिस्तथापि ।।२०- १७११ स्त्रियों का मध्यभाग मल-मूत्र आदि का स्थान है, इनकी इन्द्रियाँ मल-मूत्रावि निकलने का लार हैं और उनका नितम्बधिम्ब स्थूल मांस तथा हड्डियों का समूह है फिर भीका है कि वह कामान्य मनुष्यों की प्रीति के लिए होता है ।
यद्यपि महाकवि ने प्रशस्ति में अपने निवास का कुछ भी उल्लेख नहीं किया है तथापि मन्यान्तर्गत वर्णनों से जान पड़ता है कि मध्यप्रान्त से उनका अच्छा सम्बन्ध रहा हैं। उन्होंने उत्तरकोशल देश के रत्नपुर नगर से लेकर विदर्भदेश की कुण्डिनपुरी तक धर्मनाथ की स्वयंवर - यात्रा का वर्णन किया है इसी प्रसंग के बीच, मार्ग में पड़नेवाली गंगा नदी का साहित्यिक रीति से सुन्दर वर्णन किया है । विन्ध्याचल का दशमस्वव्यापी वर्णन यह सूचित करता है कि कवि ने इस पर्वत का साक्षात्कार अवश्य किया है । इसके अतिरिक्त जीवन्धरचम्पू के सप्तम लम्भ में एक किसान का वर्णन किया है
१२.
करवृतऋजुतीत्रः कम्बलच्छत्र देहः
कटितटगतदात्रः स्कन्धसम्बद्धसीरः ।
महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन