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ललितकीर्ति के शिष्य न होकर किसी अन्य ललितकीति के शिष्य है तथा १६५२ संवत् से तो पूर्ववती है ही।
धर्मशर्माभ्युदय काम्य का प्रथम विवरण पोटर्सन ने अपनी एक संस्कृत-ग्रन्थों की खोज सम्बन्धी रिपोर्ट में दिया था और बम्बई की काव्यमाला सीरीज के अष्टम अन्य के रूप में इसका प्रथम बार प्रकाशन सन् १८८८ में हया था। उसी संस्करण की और भी दो-तीन आवृत्तियों हो चुकीं। ये आवृत्तियाँ मूल और संक्षिप्त पाद-टिप्पण के साथ प्रकाशित हुई थी। अब यशस्कीति की संस्कृत टीका और मेरे हिन्दी अनुवाद के साथ भारतीय ज्ञानपीठ वाराणसी से प्रकाशित हुआ है। इसका सम्पादन ८ हस्तलिखित प्रतियों के आधार पर किया गया है।
उपसंहार इस प्रबन्ध में धर्मशर्माम्युदय और जीवघरचम्पू का अनुशीलन तो है ही साथ में शिशुपालवध, चन्द्रप्रभचरित, किरातार्जुनीय, नैषधीयचरित, गद्यचिन्तामणि, क्षत्रचूडामणि, दशकुमारचरित, बर्द्धमानचरित, विक्रान्तकौरव और उत्तररामचरित आदि में भी तत्तन पकरणों में समीक्षा की गयी है । अतः इस एक प्रबन्ध के अध्ययन से अध्येता अनेक ग्रन्थों की जानकारी प्राप्त कर सकता है। संस्कृत साहित्य अत्यन्त विस्तृत है । विभिन्न कवियों ने अपनी-अपनी शैली से उसमें पदार्थ का निरूपण किया है 1 साहित्य, तत्तत्कालीन स्थिति को प्रकाशित करने के लिए आदित्य का काम देता है। अत: उसका संरक्षण और संवर्द्धन करना प्रत्येक विद्वान् का कर्तव्य है । यह तुलनात्मक अध्ययन का युग है । इस युग का अध्येता यह जानमा चाहता है कि अमुक वस्तु का वर्णन अमुक लेखक ने किस प्रकार से किया है। आज का लेखक भी अभ्यता की अभिरुचि का ध्यान रखता हुआ अपने ग्रन्थ में इस प्रकार की अनुशीलनात्मक सामग्री प्रस्तुत करता है। जहां पहले ग्रन्थ के प्रारम्भ में प्रस्तावना के नाम पर कुछ भी नहीं रहता था वहाँ आज अल्पकाय ग्रन्थों के ऊपर भी विस्तृत प्रस्तावनाएँ लिखी जाती है। सच पूछा जाये तो यह प्रबन्ध, धर्मशर्माभ्युदय और जीवन्धरपम्पू की विस्तृत प्रस्तावना ही है । इस प्रस्तावना के साथ यदि उक्त ग्रन्थों का अध्ययन किया जाये तो उनके कितने ही गूढस्थल अनायास स्पष्ट हो जायेंगे।
अन्त में प्रबन्धगत त्रुटियों के खिए क्षमा-याचना करता हुआ प्रबन्ध का उपसंहार करता हूँ।
महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीकन