Book Title: Mahakavi Harichandra Ek Anushilan
Author(s): Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 216
________________ जीवन्धरचम्पू की प्रतियां शास्त्र-भाण्डारों में दुर्लभ है । सम्पावन के लिए मात्र बम्बई के भाण्डार में एक प्रति प्राप्त हुई थी। धर्मशर्माभ्युदय पर दो संस्कृत टीकाएं उपलब्ध है परन्तु जीवन्धरचम्पू पर आज तक किसी टीका या टिप्पण का परिशान नहीं हुआ है । जोनन्धरचम्म का गधभाग अत्यन्त दरूद है अतः टीका के बिना उसके अध्ययनअध्यापन में कठिनाई का अनुभव होता था । फलतः मैंने इस पर एक विस्तृत संस्कृत टीका स्वयं लिख दी है और परिशिष्ट' में हिन्दी अनुवाद भी कर दिया है। प्रसन्नता की बात है कि भारतीय ज्ञानपीठ वाराणसी से प्रकाशित जीवन्धरपम्पू का यह संस्करण विद्वानों को रुचिकर हुया है और उसकी प्रथमावृत्ति शीघ्र ही समाप्त हो गयी है। धर्मशर्माम्युदय के संस्कृत टीकाकार यशस्कीति के विषय में जितना कुछ ज्ञात हो सका है उसे आगे दिया जा रहा है। धर्मशर्मास्युक्य के संस्कृत टीकाकार यशस्कोति धर्मशर्माभ्युदय पर दो संस्कृत टोकाएं हैं। एक सन्देहध्वान्तदीपिका जो मण्डलाचार्य ललितकीति के शिष्य पं. यशस्कोति के द्वारा रचित है और दूसरी देवरकविनिर्मित है जिसको प्रतिया मूडबिद्री के जनमठ में विद्यमान हैं । 'सन्देहध्वान्त-दीपिका टीका' मेरे द्वारा सम्पादित होकर भारतीय ज्ञानपीठ वाराणसी से प्रकाशित हो चुकी है । संस्कृत कामों को टीका में मल्लिनाथ को पद्धति का विशेष समादर है क्योंकि उसमें अध्येताओं के बुद्धि-विकास पर दृष्टि रखते हुए उन्होंने कोष, विग्रह, समास, व्याकरण आदि सभी उपयोगी विषयों का समावेश किया है, परन्तु 'सन्देहध्वान्त-दीपिका' में मात्र अन्य का भाव प्रदर्शित करने का अभिप्राय रखा गया है। इस पद्धति में संक्षेप होता है पर अध्येता की आवश्यकता पूर्ण नहीं होती । धर्मशर्माभ्युदय जिस उच्चकोटि का काम है उसकी संस्कृत टीका भी उसी कोटि की होती तो अच्छा रहता। संस्कृत टीकाकार यशस्कीति कब हुए इसका मैं कुछ निर्णय नहीं कर सका परन्तु पुष्पिका-वाक्यों में इन्होंने अपने आपको मण्डलाचार्य ललितकीति का शिष्य घोषित किया है। एक भट्टारक ललितकीर्ति वह है जिन्होंने जिनसेन के आदिपुराण और गुणभद्र के उत्तरपुराण' पर संस्कृत टीका लिखी है। वे काष्ठासंघ स्थित माथरगच्छ और पुष्करगण के विद्वान् तथा जगत्कीति के शिष्य थे। इन्होंने मादिपुराण को टीका संवत् १८७४ के मार्गशीर्ष शुक्ला प्रतिपदा रविवार के दिन समाप्त की है तथा उत्तरपुराण को टोका संवत् १८८८ में पूर्ण की है। संस्कृत टीकाकार पं. यशस्कीति यदि इन्हों ललितकीर्ति के शिष्य है तो उनका समय भी यही ठहरता है, परन्तु सम्पादन के लिए प्राप्त हस्तलिखित प्रतियों में श्री ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवन बम्बई से जो संस्कृत टीका सहित प्रति प्राप्त हुई थी उसका लेखन काल १६५२ संवत् लिखा हुआ है। इससे सिद्ध होता है कि धर्मशर्माम्युश्य के संस्कृत टीकाकार, आदिपुराण के टोकाकार भौगोलिक निर्देश और उपसंहार

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