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यह श्लोक कालिदास के 'विक्रमोर्वशी' के निम्न श्लोक से प्रभावित जान पड़ता है
बस्काः दिषी प्रभावका
शृङ्गाररसः स्वयं नु मदनी मासो नु पुष्पाकरः । वेदाभ्यासजञ्चः कथं नृ विषयभ्यासकौतुहलो
निर्मातुं प्रभवेरमनोहरमिदं रूपं पुराणो मुनिः ॥ और हस्तिमल्ल के 'विक्रान्त कौरव' का निम्न श्लोक इससे प्रभावित लगता है । इयं चेत् सृष्टा स्यादमृतनिधिनैवेन्दुवदना
कथं क्लाम्यस्कान्तिः सृजतु स इमाम स्थिरकलः ।
अथैनां कामश्चेत् प्रकृतिललितः स्रष्टुमुचितः
स्वसत्तायां कोऽन्यः प्रथममवलम्बोऽस्य भवतु ॥१-२३॥ राजा महासेन का दूसरा चिन्तन देखिएपुर्व योषविदेवाग्मिता - विलास- वंशव्रत-वैभवादिकम् । समस्तमप्यत्र चकास्ति वादृशं न यादृशं व्यस्तम पीक्ष्यते क्वचित् ॥ २-२६ ॥
शरीर, अवस्था, द्वेष, विवेक, वचन, विलास, वंश, व्रत और वैभव आदिक सभी इसमें जिस प्रकार सुशोभित हो रहे हैं, उस प्रकार कहीं सम्यत्र पृथक्-पृथक् भी सुशोभित
नहीं होते ।
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न नाकनारी न च नागकन्यका न च प्रिया काचन चक्रवर्तिनः ।
अभूद् भविष्यत्ययचास्ति साध्विमां यदङ्गकान्त्मोपममोमहे वयम् ॥१२- ६७ ॥
न ऐसी कोई देवाङ्गना, न नागकन्या और न होगी अथवा है जिसके शरीर की कान्ति के साथ हम इस कर सकें ।
चक्रवर्ती की प्रिया ही हुई हैं,
सुव्रता की अच्छी तरह तुलना
सप्तवास में सुप्रभा को लक्ष्मी का वर्णन देखिए, कितना अद्भुत है ? मक्तुं जले वान्छति पद्ममिन्दुयमाणं सर्पति लङ्घनार्थम् । क्लिश्यन्ति लक्ष्म्याः सुवृक्षा हृषायाः प्रत्यागमार्थं कति न त्रिलोक्याम् ॥ १७-२०॥ कमल जल में डूबना चाहता है और चन्द्रमा उल्लंघन करने के लिए आकाश रूपी आँगन में गमन करता है सो ठीक ही है क्योंकि उस सुलोचना के द्वारा अपहृत लक्ष्मी को पुनः प्राप्त करने के लिए तीनों लोकों में कितने लोग कष्ट नहीं उठाते ? और भी
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कुत: सुवृत्तं स्तनयुग्ममस्था नितम्बमारोऽपि गुरुः कथं बर ।
येन येनापि महोनतेन समाश्रितं मध्यमकारि धीनम् ॥१७- २१॥
इसका स्तनमुगल सुवृत्त - सदाचारी ( पक्ष में गोलाकार) और नितम्बभार गुरु — उपाध्याय ( पक्ष में स्थूल ) कैसे हो सकता था जिन दोनों ने स्वयं उन्नत होकर अपने आश्रित मध्यभाग को अत्यन्त दीन— कृश बना दिया था ।
महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन