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परमाणु नीचे गिर गये थे, मैं मानता हूँ कि मेघ, चन्द्रमा, वृक्ष तथा चन्दन आदि अन्य उपकारी पदार्थों की रचना उन्हीं परमाणुओं से हुई थी।
निसर्गशुद्धस्य सतो न कश्चिच्चेसोविकाराय भवत्युपाधिः।
त्यक्तस्वभावोऽपि बिवर्णयोगास् कथं तदस्य स्फटिकोऽस्तु तुल्यः ॥२१॥ सज्जन पुरुष स्वभाव से ही निर्मल होता है अतः कोई भी बाह्य पदार्थ उसके चित्त में विकार उत्पन्न करने के लिए समर्थ नहीं है । परन्तु स्फटिक विषिष वर्णवाले पदार्थों के संसर्ग से अपने स्वभाव को छोड़कर अन्य-रूप हो जाता है अतः वह सज्जन के तुल्य कैसे हो सकता है।
दोषानुरक्तस्प खलस्य कस्याप्युलूकपोतस्य २ को विशेषः ।
अह्नीव सत्काम्तिमति प्रबन्धे मलीमसं केवलमीक्षाते यः ॥२३॥ दोषों में अनुरक्त दुर्जन और पोषा-रात्रि में अनुरक्त किसी उल्लू के बच्चे में क्या विशेषता है ? क्योंकि जिस प्रकार उल्लू का बच्या उत्तम काम्ति से युक्त दिन में केवल काला-काला अन्धकार देखता है उसी प्रकार दुर्जन, उत्तम कान्ति आदि गुणों से युक्त काव्य में भी केवल दोष ही देखता है ।
अहो खलस्यापि महोपयोगः स्नेहगुहो यत्परिशीलनेन ।
आकर्णमापूरितपात्रमेताः क्षीरं क्षरन्त्यक्षत एव गावः ॥२६॥ बड़े आश्चर्य की बात है कि स्नेहहीन खल-दुर्जन का भी बड़ा उपयोग होता है क्योंकि उसके संसर्ग से यह रचनाएं बिना किसी तोड़ के पूर्ण आनन्द प्रदान करती हैं ( अप्रकृत अर्थ ) कैसा आश्चर्य है कि तैल रहित स्वली का भी बड़ा उपयोग होता है क्योंकि उसके सेवन से यह गायें बिना किसी आघात के बरतन भर-भरकर दूध देती है।
आः कोमलालापपरेऽपि मा गाः प्रमादमन्तःकठिने खलेऽस्मिन् ।
शेवालशालिन्युपले छलेन पातो भवत्केवलदुःखहेतुः ॥२७॥ अरे ! मैं क्या कह गया ? दुर्जन भले ही मधुर भाषण करता हो पर उसका अन्तरंग कठिन ही रहता है, अतः उसके विषय में प्रमाद नहीं करना चाहिए, क्योंकि शेवाल से सुशोभित पत्थर के ऊपर घोखे से गिर जाना केवल दुस्ख का ही कारण होता है।
सज्जन और दुर्जन के संगम की उपयोगिता बताते हुए देखिए, कितनी मनोरम उक्ति है ?
वृत्तिमरुद्वीपवतीच सापोः खलस्य वैवस्वतसोदरीव ।
तयोः प्रयोगे कृतमज्जनो वः प्रबन्धबधुर्लभता विशुद्धिम् ॥३१॥ यतश्च सज्जन मनुष्य का व्यवहार गंगा नदी के समान घपल है और दुर्जन का यमुना के समान काला, अतः उन दोनों के संगमस्प-प्रयाग क्षेत्र में अवगाहन करनेवाला हमारा काव्यरूपी बन्धु विशुद्धि को प्राप्त हो ( जिस प्रकार प्रयाग में गंगा और यमुना प्रकीर्णक निर्देश
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