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साथ-साथ बड़े-बड़े हाथियों को भेद डाला था और हाथियों से निकले हुए मोतियों के साथ-साथ बाणों के समूह की वर्षा की थी ।
यहाँ युद्ध के भयावह काल में भी उत्प्रेक्षा और सहोति अलंकार का ध्यान रखते हुए कवि ने अपने कवित्व को भुलाया नहीं है ।
अष्टम लम्भ में पद्मास्य आदि कृत्रिम गोधन अपहारकों के साथ होनेवाले युद्ध में सैनिकों की गर्वोचित्य देखिए
अस्माकं त्रिजगत् सिद्धयशसामेषा कृपाणीलता
शत्रुस्त्रीनयनान्तक ज्वलजलेः श्यामा निपीतः पुरा । संप्रत्यासीम्नियुष्मदसृजां पानेन शोणीकृता
वीरश्रीस्मित पाण्डुराचरिततश्चित्रा भविष्यत्यहो ||२८|| पशून्या प्राणान्दा जहृत झटिति क्षीवपुरुषाः
स्वमूर्ध्नश्चापान्त्रा ममयत नरेन्द्रस्य पुरतः । मुखे वा हस्ते वा कुरुत शरवृन्दं नरपति
कृतताधारं वा रणराव सूरी अधिगटा गा किं बाचां बिसरेण मुग्धपुरुषाः किं वा वृथा डम्बर
रात्मश्लाघनयानया किमु भटाः सेषा हि नोचोचिता । संक्रीडद्रथचक्रकृष्टधरणौ भिन्ते भमुक्ताफल
पामा भारवर्षतो विजयिनः शुभ्रं यशोऽकूरति ॥ ३१ ॥ भाव यह है
जिनका यश तीनों जगत् में प्रसिद्ध है ऐसे हम लोगों को इस तलवाररूपी लता ने पहले शत्रु- स्त्रियों के नयनान्स भाग से निकलनेवाले कज्जल मिश्रित बल का पान किया था, इसलिए काली हो गयी थी । इस समय युद्ध की सीमा में आप लोगों का रक्त पीने से लाल हो रही है और अब वीर लक्ष्मी की मन्द मुसकान से सफेद हो जायेंगी । इस प्रकार आश्चर्य है कि वह अनेक रंगों से चित्र-विचित्र होगी ।
अरे पागल पुरुषो ! या तो तुम लोग शीघ्र ही पशुओं को छोड़ो या प्राणों को में छोड़ो, राजा के सामने या तो अपना मस्तक झुकाओ या धनुष झुकाओ । या तो मुख शरबुन्द — तृणों का समूह धारण करो या हाथ में शरवुन्द – माणों का समूह धारण करो ।
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या तो राजा की शरण लो या यमराज के घर को अपना शरण – घर बनाओ ।
अरे मूर्ख पुरुषो! इन वचनों के समूह से क्या होनेवाला है? इन व्यर्थ के आम्बरों से क्या प्रयोजन सिद्ध होगा ? और अपनी इस प्रशंसा से क्या सिद्धि होनेवाली है ? वास्तव में यह आत्म-प्रशंसा नीच मनुष्यों के
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ही योग्य है धनुषरूपी मेघ से
दौड़नेवाले रथों के पहियों से खुदी हुई पृथ्वी पर वर्षा ( पक्ष में, जल- वर्षा ) करता है, उसी बिजयी मनुष्य का यश,
मुक्ताफलों के बहाने अंकुरित होता है ।
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जो इधर-उधर
-बाण
शरवर्षाविदीर्ण हाथियों के
महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन