Book Title: Mahakavi Harichandra Ek Anushilan
Author(s): Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 210
________________ अपनी द्वितीय रचना धर्मशर्माभ्युदय कथा में धर्मनाथ नामक तीर्थंकर को हिंसामय युद्ध से अछूता रखने के लिए महाकवि ने वीर रस को गौण रखा है। स्वयंवर के बाद यद्यपि अन्य राजाओं की प्रतिद्वन्द्विता में युद्ध का अवसर उपस्थित किया गया है तथापि वह युद्ध धर्मनाथ तीर्थकर के द्वारा न कराकर सुषेण सेनापति के द्वारा कराया गया है । अनुष्टुप् छन्द और चित्रालंकार के चक्र ने वीर रस का विकास जैसा होना चाहिए वैसा नहीं होने दिया है, परन्तु जीवम्परचम्पू में वीर रस के परिपाक को पूर्णता बेनेवाले युद्ध का सांगोपांग वर्णन किया गया है । दो-चार लघु युद्धों के उपर्युक्त प्रसंगों के अतिरिक्त दशम लम्भ में काष्ठांगार के साथ हुए महायुद्ध का सविस्तार वर्णन किया गया है । मन्त्रणा से लेकर शत्रु समाप्ति तक का वर्णन ओजपूर्ण भाषा में दिया गया है। युद्ध का इतना सविस्तार वर्णन अन्य काव्यों में अप्राप्त है । राजा आये, काष्ठांगार, राजा गोविन्द को इसलिए आमन्त्रित करता है कि इधर मेरे ऊपर राजा सत्यन्धर के मारने का अपवाद चला जा रहा है उसे भाप आकर दूर कर दें । राजा गोविन्द, विजया रानी के भाई और सत्यन्धर राजा के साले थे अतः उनके द्वारा किया हुआ समाधान काष्टांगार ने उपयोगी समझा था। इस आमन्त्रण से लाभ उठाते हुए गोविन्द राजा अपनी पुत्री लक्ष्मणा के स्वयंबर और काषांसार मे युद्ध की तैयारी कर राजपुरी आये । लक्ष्मणा के स्वयंवर का आयोजन, उन्होंने युद्ध का प्रसंग उपस्थित करने के लिए किया था । लक्ष्मणा का स्वयंवर हुआ, अनेक देशों के जीवन्धर ने स्वयंवर में विजय प्राप्त की इसलिए काष्ठांगार कुपित हो गया। उसी समय गोविन्द राजा ने उपस्थित राजाओं को जीवन्धर का परिचय देते हुए कहा कि यह राजा सत्यन्धर का पुत्र और मेरा भानजा है। काष्ठांगार ने राजा सत्यम्घर का घाव किया था। राजा गोविन्द के इस स्पष्टीकरण से उपस्थित राजा जीबन्धर के पक्ष में हो ये । अनाशंसित युद्ध की घोषणा किये जाने पर तात्कालिक राजा काष्ठांगार, मन्त्रणा के लिए मन्त्रशाला में बैठता है । मन्त्री लोग राजा काठांगार को युद्ध न करने की सम्मति देते हैं पर काष्ठांगार उन मन्त्रियों को देखिए, किन शब्दों में फटकारता हूँएवं मन्त्रिगिरं निशम्य सभयं तृष्णों स्थितः सोऽवदत् कर्णे लग्नमुखेन तत्र मथनेनादीपितकोश्रमः । J रे रे केन ससाध्वसं बहुतरं पृष्टोऽसि वक्तुं पुरो भtoerd यदि तिष्ठ वेश्मनि मुषा क्लीबोऽसि किं भाषितः ॥ ३२ ॥ माद्यति पटापटूस्फुटनोटप्रहृष्पद्भटा टोपाच्छादित दिक्त रणतले खड्गोलसद्धारया | माहृत्य श्रियमाहवोद्यतरिपु-क्षोणी भृतामुज्ज्वलां कीर्त्या कोमलया दिशो धवलयाम्पुस्फुल्लकुन्दश्रिया ॥ ३३ ॥ धर्मदस मन्त्री के उक्त शब्द सुनकर काष्ठागार पहले तो कुछ देर तक चुप बैठा रहा । तदनन्तर काम में मुख लगाकर जब मथम ने उसके क्रोध को उत्तेजित किया तब सामाजिक दशा और सुख-निदर्शन १९९

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