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युद्ध का वर्णन करने के लिए वीरनन्दी ने चन्द्रप्रभचरित ( १५वा सर्ग) में, भारवि ने किरातार्जुनीय ( १५वा सर्ग ) में और माघ ने शिशुपालवध ( १९वां सर्ग) में भी उसी अनुष्टुप् छन्द को अपनाया है तथा साथ में चित्रालंकार का चमत्कार दिखलाया है । पूर्व-परम्परा की रक्षा करते हुए हरिचन्द्र ने भी धर्मशर्माभ्युदय ( १९वीं सर्ग ) में उसी अनुष्टुम् छन्द और चित्रालंकार को समाथय दिया है। यद्यपि इस छन्द
और इस अलंकार में वीररस का प्रवाह जिस उद्दाम गति से प्रवाहित होना चाहिए उस गति से नहीं हो पाता परन्तु चित्रालंकार की सुगमता इसी छन्द में रहती है इसलिए विवश होकर कवि को यह छन्द स्वीकृत फरना पड़ा है। जहां साथ में चित्रालंकार का चक्र नहीं रहता है वहीं वीररसोपयोगी भिन्न छन्दों के द्वारा युद्ध का वर्णन किया आता है जैसा कि जीवन्धरचम्पू के दशम लम्भ में हुआ है। जीवन्धरचम्पू का युद्ध-वर्णन आगे दिया जायेगा ।
जोवन्धरबम्पू में युद्ध-वर्णन श्रृंगारादि नौ रसों में वीररस अपना प्रमुख स्थान रखता है इसीलिए उरो महाकाव्यों में अंगी रस बनने का अवसर प्राप्त है।' जीवन्धरचम्पू का अंगी रस शान्तरस है फिर भी अंगी रस के रूप में वीररस का यत्र-तत्र अच्छा निरूपण हुआ है । द्वितीय लम्म के अन्त में शबर-सेना के साथ क्षत्रचूड़ामणि जीवघरकुमार का अल्प युद्ध हुआ है । उस युद्ध के लिए उद्यत जीवन्धरकुमार का वर्णन देखिए, कितना स्फूर्तिदायक है ? नखांशुमयमञ्जरीसुरभितां धनुर्वल्लरी
समागतशिलीमुखां दधदयं हि जीवन्धरः। अनोकह इवाबभौ भुजविशालशाखाशितो
निरन्तर जमेन्दिराविहरणकसंवासभूः ॥२८॥ कुण्डलीकृतशरासनान्तरे जीवकाननममर्षपाटलम् । स्पर्धते परिधिमध्यसंस्थितं चन्द्रबिम्बमिह संध्ययारुणम् ।।२९।। जीवन्धरेण निर्मुक्का; शरा दीप्ता विरेजिरे । विलीनान समिति व्याधान् द्रष्टुं दीपा वागताः ॥३०॥
तदनु जिष्णचापम्बिजीवन्धराम्बुधर-निरवग्रह-निर्मक्त-रधारभिः कालकूटबलप्रतापानले शान्तता नीते निशितशस्त्रनिकृत्तकुञ्जरपदकच्छपाः मल्लावलूनहयमल्लाननपयोजपरिष्कृताः, मदवारणकर्णभ्रष्टचामरहंसावतंसिताः, कोलालवाहिन्यः समीकयरायां पर:सहसमजायन्त । -पृ. ५१-५२
१. रामारवीरशान्तानामेकोऽकी रसभ्यते । अनि सर्वेऽपि रसाः सर्वे नाटकसन्धयः ||११||- साहित्यदर्पण, अध्याय ६ ।
महाकषि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन