Book Title: Mahakavi Harichandra Ek Anushilan
Author(s): Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 206
________________ सकृपाणां स्थिति बिभ्रत्स्ववामनिधनं तव । दाता वा राजसंदोहो शावकान्तारसमाश्रयम् ॥२०॥ दूत के उत्तर में सुषेण सेनापति ने जो फटकार दी है वह उसकी वीरता को सूचित करनेवाली है । सुषेण ने कहा गुणदोषानविज्ञाय भर्तुर्भक्ताषिका जनाः । स्तुतिमुच्चावचामुचः कां न कां रचयन्त्यमी ॥३८॥ ये भक्ताषिक – भोजन से परिपूर्ण अथवा श्राद्धों में अधिक दिखनेवाले पिण्डीशूर लोग गुण और दोषों को जाने बिना ही अपने स्वामी की ऊँची-नीची क्या-क्या स्तुति नहीं करते हैं ? अर्थात् खाने के लोभी सभी लोग अपने स्वामियों की मिथ्या प्रशंसा में लगे हुए हैं । मम चालतां वीक्ष्य नवपापलतां दधत् । अयमा जिरसाद्गन्तुं किं यमाजरमिच्छति ॥४१॥ forta मेरे धनुषरूपी लता को देखकर नवीन चंचलता को धारण करनेवाला यह राजाओं का समूह युद्ध के अनुराग से क्या यमराज के आँगन में जाने की इच्छा करत है अर्थात् मरना चाहता है ? द्रुत के वापस होते ही दोनों ओर से युद्ध शुरू हो गया। मारू बाजों का शब्द सुनकर हाथी गर्जना करने लगे तथा घोड़े शीघ्र ही मागे बढ़ने के लिए होंसने लगे । शूरवीरों के शरीर हर्ष से फूल गये और पताकाओं से सहित रथ दौड़ने लगे । आकाश में देव देवियों की भीड़ लग गयी। अंग, बंग, कलिंग तथा मालय आदि देशों के नरेशों ने सुषेण से युद्ध किया परन्तु सबको पीछे हटना पड़ा। सुषेण की तलवार दशशुओं का रुधिर पीकर दूध के समान सफ़ेद यश को उगल रही थी, मानो वह एक इन्द्रजाल का खेल ही प्रकट कर रही थी। सुषेण की विजय का यह समाचार एक टूल ने आगे जाकर राजा महासेन और धर्मनाथ को सुनाया था। इस वर्ग में कवि ने एकाक्षर ( ८२ ), द्वयक्षर (५४) चतुरक्षर ( ३३ ) प्रव्रिलीमानुलोमपाद ( ११ ), समुदुगक (५६), गूढचतुर्थपाद ( ३६ ), निरोष्यप ( ५८ ), गोमूत्रिक ( ७८ ), अर्थभ्रम ( ८४), सर्वतोभद्र ( ८६ ), मुरजबन्ध (९०), और चक्रबन्ध ( १०१-१०२ ) आदि चित्रालंकार की रचना कर अपना काव्यकोशल प्रकट किया है । वस्तुतः अर्थालंकार की अपेक्षा शब्दालंकार की रचना करने में कवि को प्रतिभा का आलम्बन अधिक लेना पड़ता है । ९. फोरिशोधितं खयः क्षीरगौरं यशो यमद । हाल सदीयासिः काममाविमचकार सः सामाजिक दशा और धुम-निदर्शन ११५

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