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कराया था जो पुरुष द्वारा आकाश में घुमाया जाता था। यह मन्त्र भाकाश से शनैः-शनैः स्वयं ही पृथिवी पर उतर जाता था। काष्ठांगार के द्वारा राजभवन का प्रतिरोध किये जाने पर राजा सत्पन्धर ने इसी मयूरयन्त्र में बैठाकर विजया को आकाश में भेज दिया था। वह यन्त्र सन्ध्याकाल में श्मशान में स्वयं उतरा था । धार्मिक
वैदिक धर्म और श्रमण धर्म-दोनों ही प्रचलित थे। अपनी-अपनी मान्यता के अनुसार लोग धर्म-धारण करने में स्वतन्त्र थे। सब धर्मवालों में अधिकांश सौमनस्य चलता था। अपने बनविहार-काल में जीवन्धर वैदिक धर्मानुयायियों के तपोवन में ठहरे थे तथा उन्हें हिंसामय तप से निवृत्त होने का उपदेश भी उन्होंने दिया था ।
धर्मशर्मान्युक्य का युद्ध-वर्णन और चित्रालंकार विवाह के बाद धर्मनाथ तो कुबेर-निर्मित वायुयान के द्वारा शृंगारवती के साय रत्नपुर नगर वापस चले गये पर ईर्ष्यालु राजाओं ने सुषेण सेनापति का अवरोध किया। असफल राजाओं ने अपनी एक गुट बनाकर सुषेण पर आक्रमण की तैयारी की । युद्ध के पूर्व दूत भेजने की प्रथा प्राचीन काल से चली आयी है अतः उन्होंने सर्व प्रथम सुषेण के पास दूत भेजा । वह दूत यर्थक भाषा में बोलता है-एक अर्थ से धर्मनाथ की निन्दा और दूसरे अर्थ से उनकी प्रशंसा करता है।
शिशुपालवध के पन्द्रहवें सर्ग में शिशुपाल की ओर से श्रीकृष्ण के प्रति जो दूत भेजा गया था, माघ ने भी उस दूत से तुमर्थक भाषा में निवेदन कराया है। वहां ऐसे ३४ श्लोक है जिन्हें मल्लिनाथ ने प्रक्षिप्त समझकर छोड़ दिया है-उनकी व्याख्या नहीं की है परन्तु शिशुपालवध के अन्य टीकाफार वल्लभदेव ने उन इलोकों की व्याख्या की है तथा उसमें निन्दा और स्तुति-इस प्रकार दो पक्ष स्पष्ट किये हैं। धर्मशर्माम्युदय के का हरिचन्न ने भी माघ की इस शैली का अनुकरण कर १९३ सर्ग में १२ से लेकर ३२ तक बोस श्लोकों द्वारा निन्दा और स्तुति दोनों पक्ष रखे है। कवि को श्लेष रचना का अच्छा प्रसंग मिला है । यद्यपि इसका कुछ उल्लेख पिछले स्तम्भों में किया जा चुका है तथापि प्रसंगोपात्त कुछ चर्चा पुनः प्रस्तुत की जा रही है । यही श्लेष के साथ यमक को भी आश्रय दिया गया है। यह माघ की अपेक्षा विशेषता है। उदाहरण के लिए कुछ श्लोक देखिए
परमस्नेहनिष्ठास्ते परदानकृतोद्यमाः । समुन्नति तवेच्छन्ति प्रघनेन महापताम् ॥१८॥ राजानस्ते जगत्ल्याता बहुशोभनवाजिनः । वने कस्तरकुधा नासीद् बहुशोभमवाजिनः ।।१९।।
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महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन