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अजस्रमासीद् धनसंपदागमो न वारिसंपत्तिरदृश्यस क्वचित् । महोजसि त्रातरि सर्वतः सतां सदा पराभूतिरभूविज्ञाद्भुतम् ।।६२॥ न नीरसत्वं सलिलाशयावृते वधावयः पङ्कषमेव सद्गुणान् । अमूमधर्मतिषि तब राजनि त्रिलोचने अवजिनानुरागिता १६३॥ प्रसह्य रक्षस्यपि मोतिमक्षतामभूवनीतिः सुखभामर्न बनः । भयापहारिण्यपि तत्र सर्वतः क्व नाम नासीत्प्रभयान्वितः क्षिती ।।६४॥
-सर्ग १८ महान वैभव के धारक मगवान् धर्मनाथ जब पृथिवी का शासन कर रहे थे तब न अकालमरण था, न रोगों का समूह था, और न कहीं दुभिक्ष का भय ही था। यानन्द को प्राप्त हुई प्रा चिरकाल तक समृद्धि को प्राप्त होती रही ।
___ उस समय भगवान् के प्रभाव से समस्त पृथिवी-तल पर प्राणियों को सुख का कारण वायु बह रहा था, सर्दी और गर्मी ने भी किसी को भय नहीं था और मेघ भी इच्छानुसार वर्षा करनेवाला हो गया था। .
अतिशय तेजस्वी भगवान् धर्मनाथ के सन ओर सज्जनों की रक्षा करने पर घनसम्पदागम-मेघरूपी सम्पत्ति का आगम ( पक्ष में, अधिक सम्पत्ति का आगमन ) निरन्तर रहता था किन्तु वारिसम्पत्ति-जलरूप सम्पदा ( पक्ष में, शत्रुओं को सम्पदा ) काही नहीं विटाई देती पी हार या पति - प्रात्यजिन' साप अथवा अपमान ( पक्ष में, उत्कृष्ट वैभव ) ही दिखता था—यह भारी आश्चर्य की बात थी।'
अधर्म के साथ द्वेष करनेवाले भगवान् धर्मनाथ के राजा रहने पर नीरसत्यजल का सद्भाव जलाशय के सिवाय किसी अन्य स्थान में नहीं था; ( पक्ष में, नीरसता किसी अन्य मनुष्य में नहीं थी ) सदगुणों-मृणाल तन्तुओं को कमल ही नीचे घारण करता था, अन्य कोई सदगुणों-उत्सम गुणवान मनुष्यों का तिरस्कार नहीं करता था और अजिनानुरागिता-धर्म से प्रीति महादेवजी में ही थी, अन्य किसी में अजिनानुरागिता-जिनेन्द्र-विषयक अनुराग का अभाव नहीं था।
___ यद्यपि भगवान् धर्मनाथ अखण्डितनीति की रक्षा करते थे फिर भी लोग अनीति-नीतिरहित ( पक्ष में, अतिवृष्टि आदि ईतिरहित ) होकर सुख के पात्र थे और वे मद्यपि पथिवी में सम ओर भय का अपहरण करते थे फिर भी प्रभयान्वितअधिक भय से सहित ( पक्ष में, प्रभा से सहित ) कहा नहीं था ? सर्वत्र था।'
उपर्युक्त श्लोकों में से ६२ और ६ श्लोक ने मिलकर अहंदास कवि के पुरुदेवचम्पू में निम्न प्रकार प्रवेश किया है
१. विरोधाभास । २, परिसंरल्या। ३. चिरोधाभास।
नीति-निर्बुज