Book Title: Mahakavi Harichandra Ek Anushilan
Author(s): Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 197
________________ गुणों का अत्यधिक अर्जन करो क्योंकि उत्तम गुणों से युक्त (पक्ष में, उत्तम होरी से युक्त ) मनुष्य ही कार्यों में अनुष के समान प्रशंसनीय होता है, गुणों से रहित ( पक्ष में, ओरी से रहित ) मनुष्य बाण के समान अत्यन्त भयंकर होने पर भी क्षण-भर में लक्ष्य -लज्जा ( पक्ष में, लक्ष्यभ्रष्टता) को प्राप्त हो जाता है। मनुष्य को पराश्रयी नहीं होना चाहिए-इसका वर्णन देखिएस्थितेऽपि कोषे नृपतिः पराश्रयो प्रपद्यते लाघवमेव केवलम् । अशेषषिश्वम्भरकुक्षिरध्युतो बलि भजन कि न बभूव वामनः ॥२२॥ निज का खजाना रहने पर भी जो पर का आश्रय लेता है यह केवल तुच्छता को प्राप्त होता है । जिसका उदर अपने आपमें समस्त संसार को भरनेवाला है ऐसा विष्णु, बलि राजा की आराधना करता हुक्षा क्या वामन नहीं हो गया था ? श्रिवर्गसाधना का उपदेश देते हुए कहते हैसुखं फलं राज्यपदस्थ जन्यते सत्र कामेन स नार्थसाधनः । विमुच्य तौ चेदिह धर्ममीहसे वृथैव राज्यं वनमेव सेव्यताम् ॥३१॥ इहार्थकामाभिनिवेशलालसः स्वधर्ममर्माणि भिनत्ति-यो नुपः। फलाभिलाषेण समीहते उरुं समूलमुन्मूलयितुं स दुर्मतिः ॥३२॥ राज्य पद का फल सुख है, वह सुख काम से उत्पन्न होता है और काम अर्थ से । यदि तुम दोनों को छोड़कर भिमाल मर्ग की इछ मते होती है : उपरे अच्छा तो यही है कि बन की सेवा की जाये। जो राजा अर्थ और कास-प्रामि की लालसा रख अपने धर्म के मर्मी का भवन करता है वह दुर्मति फल की इच्छा से समूल वृक्ष को उखाड़ता है। राजपद की सार्थकता पतलाते हुए कहते हैपिनोति मित्राणि न पाति न प्रजा बिभर्ति भृत्यानपि नार्थसंपदा । नयः स्वतुल्यान् विदधाति बान्धवान् स राजशब्दप्रतिपत्तिभाक् कथम् ॥४०॥ जो न मियों को सन्तुष्ट करता है, न प्रजा की रक्षा करता है, न भृत्यों का भरण-पोषण करता है, और न अर्थरूप सम्पत्ति के द्वारा भाई-बन्धुओं को अपने समान ही बनाता है वह राजा कैसे कहलाता है ? नीत्युपदेश के अनन्तर राजा महासेन ने युवराज धर्मनाथ का राज्याभिषेक किया और उन्हें समस्त सम्पसि सौंपकर जिनदीक्षा धारण कर लो। धर्मनाथ राज्य-सिंहासन पर मारूढ़ हुए। इनकी राज्य-व्यवस्था का वर्णन करते हुए कवि हरिचन्द्र ने कहा है न चापमृत्युन च रोगसंचयो बभूव दुभिक्षभयं न च क्वचित् । महोदये शाराति सम मेदिनी नगन्दुसनस्दजुषश्चिरं प्रजाः ११५९।। अनी समीरः सुनहेतुरङ्गिनां हिमादिवोष्णावपि नाभवद् भयम् । प्रभोः प्रभावात्सकलेऽपि भूतले स कामवर्णी जलदोऽप्यजायत ॥६॥ महाकवि हरिचन्द्र : एक मनुचीकन 12

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