Book Title: Mahakavi Harichandra Ek Anushilan
Author(s): Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 201
________________ या सोहविहीनदीपालिकाकल्प चळं जीवितं शम्पावरक्षणभङ्गुरा तनुरियं लोलाभ्रतुल्यं वयः । तस्मात्संसृतिसन्नती न हि सुखं तत्रापि भूखः पुमा लावते. वहिवं करोति व पुनर्मोहाय कार्य वृथा ॥२५।। विलोम्यमानो विषयैर्वराको भङ्गर श्चम् । नारम्भदोषान्मनुते. मोहन बहुचुःखवान् ॥२६॥ ये मोक्षलक्ष्मीमनपायरूपा विहाय विन्दन्ति नृपाललक्ष्मीम् । निदाघकाले शिशिराम्बुमारा हित्वा भजन्ते मृगतष्णिकां ते ॥२८॥ -पू. २२४-२२५ जीवन्धर स्वामी की भक्ति-गंगा कथा-नामक जोबम्धर स्वामी भक्तहृदय महापुरुष थे, इसलिए उन्होंने एक वर्ष का लम्बा समय तीर्थयात्रा में श्यतीत किया था। चन्द्रोदय पर्वत से उतरकर उन्होंने दक्षिण भारत की बीहड़ अठवियों में एकाको भ्रमण कर अनेक जिन-मन्दिरों में दर्शन किये थे । दर्शन करते समय उनके मुखकमल से जो भक्ति-गंगा यत्र-तत्र प्रवाहित हुई है उसका कुछ नमूना संकलित किया जाता है । दक्षिण देश के क्षेमपुर नगर के बाह्योद्यान में स्थित जिनमन्दिर के दर्शन कर जीवन्धर स्वामी इस प्रकार जिनेन्द्र की स्तुति करते है भवभरभयदूरं भावितानन्दसारं घृतविमलशरीरं दिव्यवाणीविचारम् । मदनमवविकारं मजुकारुण्यपूर श्रयत जिनपधीर शान्तिनाथं गभीरम् ।।१७।। यस्यायोकताविभाति शिशिरच्छायः श्रितानां शुचं धुन्वन्सार्थकनामधेयगरिमा माहात्म्यसंवादकः । यं देवाः परितो ववर्षुरमितैः फुल्ल: प्रसूनोञ्चयः कल्याणाचलमन्ततः कुसुमिता मन्दारवृक्षा यथा ॥१८॥ सकलवचनभेदाकारिणी दिव्यभाषा पामयति भवतापं प्राणिनां मक्षु यस्य । अमरकरविधूतश्चामराणां समूहों पिलसति बल मुक्तिश्रीकटाक्षानुकारी ॥१९॥ कनकशिस्त्ररिङ्ग स्पर्धते पस्थ सिंहा सममिवमखिलेशं द्वेष्टि धर्मादिसीव । वलयमपि च भासा पद्मकन्धुं विरुद्धे मम पविरिलि सोमं यातिमापेति रोषात् ।।२०।। महाकवि हरिचन्न : एक मशीखन १९०

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