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के संगम में गोता लगाकर मनुष्य शुद्ध हो जाता है उसी प्रकार सज्जन और दुर्जन की प्रशंसा तथा निन्दा के बीच पड़कर हमारा काव्य विशुद्ध-निर्दोष हो जाये। )
दुर्जन के अनेक नामों में एक 'कृष्णमुख' भो नाम प्रचलित है। उसका कृष्णमुख नाम क्यों पड़ा, इसमें कवि की सुन्दर पुक्ति देखिए
आदाय शब्दार्थमलीमसानि यदुर्जनोऽसौ वदने दधाति ।
तेनैव सस्याननमेव कृष्णं सतां प्रबन्धः पुनरुज्ज्वलोऽभूत् ।।२८।। यतश्च खुर्जन मनुष्य शब्द और अर्थ के दोर्षों को ले-लेकर अपने मुख में रखता जाता है-मुख द्वारा उच्चारण करता है अतः उसका मुख काला होता है और घोष निकल जाने से सज्जनों की रचना उज्ज्वल-निर्दोष हो जाती है। इसी सन्दर्भ में चन्द्रप्रभचरित का यह श्लोक भी बड़ा सुन्दर प्रतीत होता है
गुणानगृह्णन् सुजनो न निर्वृति प्रयालि दोषानवदन्न दुर्जनः ।
चिरन्तनाम्पासनिबन्धनेरिता गुणेषु दोषेषु च जायते मतिः ॥७॥ गणों को ग्रहण' किये बिना सज्जन और घोषों को कहे बिना दुर्जन सन्तोष को प्राप्त नहीं होता कि शुद्धि, तिरना: यासमी प्राण से प्रेरित होकर ही गुणों और दोषों में प्रवृत्त होती है। महाकवि अर्हद्दास के मुनिसुव्रत काव्य का निम्न श्लोक भी द्रष्टव्य है
सन्तःस्वभावाद् गुणरत्नमत्थे गृह्णन्ति दोषोपलमात्मकोयम् ।
यमा पयोऽरलं शिशवो जलौका जनो वृथा रज्यति कुप्यतीह ||८||-सर्ग १ गद्यचिन्तामणि में यादीभसिंह का भी एक श्लोक देखिएत्यवानुवर्तनलिरस्करणौ प्रजानां श्रेयः परं च कुरुतोऽमृतकालकूटौ ।
तवत्सदन्यमनुजावपि हि प्रकृत्या तस्मादपेक्ष्य किमुपेक्ष्य किमन्यमेति ॥८१।। कादम्बरी में बाणभट्ट का भी एक पद्य देखिए
कटु क्वणन्तो मलदायकाः खलास्तुदन्त्यलं बन्धनाला इव ।
मनस्तु साधुध्वनिभिः पदे पदे हरम्ति सन्तो मणिनपुरा इव ||६||
कटु शब्द बोलते हुए, दोष देनेवाले दुर्जन बन्धन की सांकल के समान अत्यन्त दुख देते हैं जबकि सज्जन पुरुष मणिमय नूपुरों के समान उसम शब्दों के द्वारा पद-पद पर मन को हरण करते हैं।
___ कालिदास, मारवि, माघ तथा श्रीहर्ष आदि कवियों ने अपने काव्यों में इस सन्दर्भ की चर्चा नहीं की है इसलिए क्वचित् शब्द के द्वारा इसकी प्रायोवादता प्रदर्शित की गयी है।
पुत्राभाव-वेदना गृहस्थ दम्पति के हृदय में पुत्र की स्वाभाविक स्पृहा रहा करती है। क्योंकि उसके बिना उसका गार्हस्थ्य अपूर्ण रहता है । रघुवंश में कालिबास ने राजा दिलीप के १८०
महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन