________________
पुत्राभाव-सम्बन्धी दुख का वर्णन किया है । बाणभट्ट ने कादम्बरी में इसका विस्तृत और मार्मिक उल्लेख किया है। श्रीचन्द्रप्रभ चरित में महाकवि' बीरनन्दी ने भी इसकी चर्चा की है पर धर्मशर्माभ्युदय के द्वितीय सर्ग के अन्त में { ६८-७४ ) महाकवि हरिचन्द्र ने सुब्रता रानी के पुत्र न होने के कारण राजा महासेन के मुख से जो दुख प्रकट किया है वह पढ़ते ही हुदय पर गहरी चोट करता है। उदाहरण के लिए कुछ श्लोक देखिए
सहस्रधा सत्यपि गोत्रो जने सुत विना कस्य मनः प्रसीदति ।
अपीद्धताराग्रहभितं भवेदृते विषोयामलमेव दिङ्मुखम् !!७०।। हतारों कुटुम्बियों के रहते हुए भी पुत्र के बिना किसका मन प्रसन्न होता है । भले ही आकाश देदीप्यमान ताराओं और ग्रहों से युक्त हो पर चन्द्रमा के बिना मलिन हो रहता है।
न चन्दनेन्दीवरहारयष्टयो न चन्द्ररोचींषि न वामृतच्छटाः ।
सुताङ्गसंस्पर्शसुखस्य निस्तुल कलामयन्ते खलु पोडशीमपि ।।२।७१।। पुत्र के शरीर के स्पर्श से जो सुस्न होता है वह सर्वथा निरुपम है, पूर्ण की बात जाने दो उसके सोलहवें भाग को भी न चन्द्रमा पा सकता है, न इन्दीबर पा सकते हैं, न मणियों का हार पा सकता है, न चन्द्रमा की किरणों पा सकती है, और न अमृत की छटा ही पा सकती है।
नभो दिनेशेन नमेन विक्रमी वनं मृगेन्द्रेण निशीथमिन्दुना ।
प्रतापलक्ष्मीबलकान्तिशालिना मिना न पुत्रेण च भाति नः कुलम् ||२७३|| जिस प्रकार सूर्य के बिना आकाश, नम के बिना पराक्रम, सिंह के बिना वन और चन्द्रमा के बिना राधि की शोभा नहीं उसी प्रकार प्रताप, लक्ष्मी, बल और कान्ति से शोभायमान पुत्र के बिना हमारा कुल सुशोभित नहीं होता ।
क्यामि तल्कि न करोमि दुष्करं शुरेश्वर वा कममि कामदम् ।
इतीचिन्ताचपचक्नचालितं क्वचिन्न चेतोऽस्य बभूव निश्चलम् ।।२।७४।। कहाँ जाऊँ ? कौन-सा कठिन कार्य करूं? अथवा मनोरथ को पूर्ण करनेवाले किस देवेन्द्र को शरण गर्ने ?....इस प्रकार इष्टपदार्थविषयक पिस्ता समूहरूपी चक्र से चलाया हुआ राजा का मन किसी भी जगह निश्चल नहीं हो रहा था ।
इस प्रकार धर्मशर्माभ्युदय का पुत्राभाव वर्णन यद्यपि संक्षिप्त है सथापि मामिक है। एक बाल अवश्य है, मनोविज्ञान की दृष्टि से पुत्र के अभाव में माता का हृदय जितना तड़पता है उतना पिता का नहीं इसलिए यह वेदना माता के मुख से प्रकट की जाने पर अधिक मार्मिक दिखती है जैसा कि चन्द्रप्रभचरित में उसके कर्ता वीरनन्दी ने श्रीकान्ता रानी के मुख से इस पीड़ा का वर्णन किया है। उस प्रसंग के एक-दो लोक देखिए
चन्द्राजिलता रचिरलंकुरुते चनानां
वीथीं सरोअनिकरः सरसीमहंसाम् ।
प्रकीर्णक निर्देश
१८१