Book Title: Mahakavi Harichandra Ek Anushilan
Author(s): Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 188
________________ अथैकदा व्योम्ति निरभ्रगर्भे क्षणं क्षपायां क्षणदाधिनाथम् । अनाथनारीव्यथनंनसेव स राहूणा प्रेक्षत गृह्यमाणम् ॥ ४१ ॥ कि सीना स्फाटिकपानपात्रमिदं रजन्याः परिपूर्यमाणम् 1 चलद्विरेफोच्च यचुम्च्यमानमाकाशगङ्गास्फुट कैरवं वा ॥४२॥ ऐरावणस्याथ कराकथंचियुतः सपङ्को बिसकन्द एषः । किं व्योति नीलोपमदर्पणाभे सश्मश्रु वक्त्रं प्रतिबिम्बित में ||४३|| क्षणं तिक्येंति स निश्चिकाय चन्द्रोपरागोऽपमिति क्षितीशः | दृङ्मीलनाविष्कृत चितखेदमचिन्तयच्चैव मुदारचेताः ||४४) - ( सर्ग ४ ) तदनन्तर उसने एक दिन पूर्णिमा की रात्रि को जबकि आकाश मेघरहित होने से बिलकुल साफ़ या पतिहोन स्त्रियों को कष्ट पहुँचाने के पाप से ही मानो के द्वारा से जानेवाले चन्द्रमा को देखा । + राहु उसे देखकर राजा के मन में निम्न प्रकार वितर्क हुए- क्या यह मदिरा से भरा जानेवाला रात्रि का स्फटिकमणिनिर्मित कटोरा है ? या चंचल भौरों के समूह से चुम्बित आकाशगंगा का खिला हुआ सफ़ेद कमल हूँ ? या ऐरावत हाथी के हाथ से किसी तरह छूटकर गिरा हुआ पंकयुक्त मृणाल का कद है ? या नीलमणिमय दर्पण की आभा से युक्त आकाश में मूँछ सहित मेरा मुख ही प्रतिबिम्बित हो रहा है ? इस प्रकार क्षण भर विचार कर उदार हृदय निश्चय कर लिया दिना विश्वय के बाद ही नेत्र बन्द कर मन का खेद प्रकट करता हुआ वह इस प्रकार विचार करने लगा । इसी विचार की सन्तति में उन्होंने निश्चय किया कि जब तक यमराज की दूती के समान वृद्धावस्था नहीं आ पहुँचती है तब तक मुझे आत्मकल्याण कर लेना चाहिए । कवि ने वृद्धावस्था के वर्णन में कितनी त्रिभुता दिखलायी है यह बेखिएअन्याङ्गनासङ्गमलालसानां जरा कृतेष्ये॑व कुतोऽप्युपेत्य । आकृष्य केशेषु करिष्यते नः पदप्रहारैरिव दन्तभङ्गम् ||१५|| क्रान्ते तवाङ्गे नलिभिः समन्तान्नश्यत्यनङ्गः किमसावितीव । वृद्धस्य कर्णान्तगता जरेयं हसत्मुदचरपति च्छलेन ॥५६॥ रसायुमप्याशु विकासिकाशसंका राकेशप्रसार तरुण्यः । उदस्थिमात जजनोदपानपानीयवन्नाम नरं त्यजन्ति ॥ ५७॥ आकर्णपूर्ण कुटिलालकोमि रराज लावण्यसरो यद वलिच्छलात्सारणिधोरणीभिः प्रवाह्यते तज्जरसा नरस्य ॥ ५८ ॥ असंभृतं मण्डनमङ्गयष्टेर्नष्टं भव मे यौवनरत्नमेतत् । इती वृद्धो नतपूर्वकायः पश्यन्नषोऽषो भुवि बम्भ्रमीति ॥ ५९ ॥ इत्यं पुरः प्रेष्य जरामवृष्यां दूतो मियापत्प्रसप्रदंष्ट्रः । याचन्न कालो प्रसते बलाम्मां तावद्यविष्ये परमार्थ सिख्यं ॥ ६० ॥ सर्ग ४ " प्रकीर्णक निर्देश २३ ७७

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