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कोई राजा अपने हाथों के द्वारा, नखों की लालिमा से रक्तवर्ण, अतएव कामदेव के शस्त्रों से भिन्न हृदय में लोगों को दधिरधारा का भारी भ्रम उत्पन्न करनेवाले हार को लीला पूर्वक घुमा रहा था ।
प्रतीहारी पद पर नियुक्त सुभद्रा, श्रृंगारवती को मंचों पर समासोन मालव, मगध, अंग, बंग, कलिंग तथा दाक्षिणात्य देशों में कर्णाट, लाट, द्रविड़ ओर आन्ध्र आदि देशों के राजाओं के समीप के गयी। अपनी जानकारी के अनुसार उसने उन राजाओं की गुणाधली का वर्णन किया परन्तु शृंगारवती का मन किसी पर अनुरक्त नहीं हुआ । अन्त में जिस प्रकार कोई महानदी अनेक देशों को छोड़ती हुई रत्नाकर के समीप पहुँचती है उसी प्रकार वह अनेक राजाओं को छोड़ती हुई धर्मनाथ के पास पहुंची । सुभद्रा प्रतिहारी ने उनको स्थिर लक्ष्मी और भ्रमण-शील कीर्ति का वर्णन करते हुए कहा
वक्षःस्थलात्प्राज्यगुणानुरक्ता मुक्तं न लोलापि चचाल लक्ष्मीः । बद्धा वचैरपि कीर्तिरस्य ननाम यमूत्रितयेऽभुतं तत् ॥ ७५ ॥
लक्ष्मी यद्यपि चंचल है तथापि प्रकृष्ट गुणों में अनुरक्त होने के कारण इनके वक्षःस्थल से विचलित नहीं हुई यह उचित ही है परन्तु कीति बड़े-बड़े प्रबन्धों के द्वारा बद्ध होने पर भी तीनों लोकों में घूम रही है यह आश्चर्य की बात हैं ।
शृंगारवती के चित्त को धर्मनाथ में अनुरक्त देस, सहेली जन हँसली हुई हस्तिनी को आगे बढ़वाने लगी तब उसने सखी का अंचल खींच दिया । सात्विक भाव के कारण काँपते हुए हाथों से उसने धर्मनाथ के गले में वरमाला डाल दी ।
स्वयंवर - विधि के समाप्त होने पर ही बृहत् समारोह के साथ धर्मनाथ ने विदर्भदर्शनोत्सुक नारियों के वर्णन को निष्प्रभ कर
राज के घर की ओर प्रस्थान किया। इस संदर्भ में कवि ने कुतूहल का जो वर्णन किया है उसने पूर्ववर्ती कवियों के दिया है।
इस
निर्मिमेष खड़ी एक गौरांगी का चित्र देखिए कितना सुन्दर खींचा गया हैउद्यभुजालम्बितनासिकाया स्थिता गवाक्षे विगलनिमेषा |
गौरी क्षणं दर्शितनाभिचक्रा चक्रे भ्रमं काचन पुत्रिकायाः ॥ १७९८ ।।
जिसने उठायो हुई भुजा से ऊपर का काठ छू रखा है, जो झरोखे में खड़ी है,
जिसके पलकों का गिरना दूर हो गया है तथा जिसका नाभिमण्डल दिख रहा है ऐसी कोई गौरांगी स्त्री क्षणभर के लिए पुतली का भ्रम उत्पन्न कर रही थी ।
स्त्रियों के बीच शृंगारवती के सौभाग्य और धर्मनाथ के सौन्दर्य की चर्चा देखिए, कितना प्रांजल है ?
शृङ्गारवपाश्चिरसंचितानां रेखामतिक्रामति का शुभानाम् ।
लब्धो यथा नूनमवगम्यो मनोरथानामपि जीवितेशः ॥ १७१०१ ॥
प्रकीर्णक निर्देश
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