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धर्मनाथ को इस स्वयंवर -यात्रा का अवतरण किया है। जिस प्रकार माघ ने, युधिष्ठिर महाराज के यज्ञ में भेजने के लिए श्रीकृष्ण की यात्रा का प्रसंग उपस्थित किया है और उस बीच में अपनी काव्य प्रतिभा को साकार किया है उसी प्रकार हरिचन्द्र ने भी यह प्रसंग प्रस्तुत किया है और उस प्रसंग में कायों का किया है। युवराज धर्मनाथ की इस स्वयंवर -यात्रा का वर्णन धर्मशर्माभ्युदय के नवम सर्ग से शुरू होकर पोडश सर्ग तक गया है । सप्तदश सर्ग में स्वयंवर का वर्णन है ।
ऐसा लगता है कि स्वयंवर वर्णन की यह प्रेरणा कवि को कालिदास के इन्दुमती स्वयंवर वर्णन से प्राप्त हुई है । इसकी सम्पुष्टि के लिए 'आदान-प्रदान' शीर्षक स्तम्भ में कुछ रघुवंश और धर्मशर्माभ्युदय के तुलनात्मक अवतरण दिये गये हैं ।
समलंकृत स्वयंवर - मण्डप में युवराज धर्मनाथ के प्रवेश करते ही अन्य राजाओं के मुख श्याम पड़ गये उनकी सुन्दरता का वर्णन करते हुए कवि ने कहा हैअयं स काम नियतं भ्रमेण कमप्यधाक्षीद् गिरिशस्तदानीम् । इत्यद्भुतं रूपमवेक्ष्य जैनं जनाधिनाथाः प्रतिपेदिरे ते ॥ ६ ॥ सर्ग १७ उस समय जिनेन्द्र-धर्मनाथ का अद्भुत रूप देखकर उन राजाओं ने समझा था कि सचमुच का कामदेव तो यही है उस समय महादेव ने भ्रम से किसी दूसरे को
जळाया था 1
"वाद्यों की मधुर ध्वनि के बीच हस्तिनी पर सवार होकर शृंगारवती ने स्वयंवर मण्डप में ऐसा प्रवेश किया जैसा कि श्यामल घन-घटा पर कोंदली हुई बिजली माकाश में प्रवेश करती है ।
प्रवेश करते ही राजकुमारी श्रृंगारवती ने राजाओं के मन में स्थान प्राप्त कर लिया इसका वर्णन कवि की सालंकार वाणी में देखिए
पयोधरश्री समय प्रसर्पद्वारावलीशालिनि संप्रवृत्ते ।
सा राजहंसीय विशुद्धपक्षा महीभृतां मानसमाविवेश ।। १६ ।।
हिलते हुए हारों के समूह से सुशोभित ( पक्ष में, चलती हुई धाराओं से सुशोभित ) स्तनों की शोभा का समय - तारुण्य काल ( पक्ष में, वर्षा ऋतु) प्रवृत्त होने पर विशुद्ध पक्षवाली ( पक्ष में रमेत पंखोंवाली वह राजहंसी श्रेष्ठ राजकुमारी ( पक्ष में, हंसी ) राजाओं के मनरूपी मानस सरोवर में प्रविष्ट हो गयी थी ।
इस सन्दर्भ में राजाओं की विविध चेष्टाओं का वर्णन करते
हुए कवि ने अपनी प्रतिभा का अच्छा परिचय दिया है । कोई एक राजा लीलापूर्वक अपना हार घुमा रहा था, इसका वर्णन देखिए
कश्चित्कराभ्यां नखरागरक्तं सलीलमावर्तयति स्म हारम् । स्मरास्त्रभिन्ने हृदयेऽलधाराश्रमं जनानां जनयन्तमुच्चैः ||३०||
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१. धर्म शर्मा, सर्ग १७, श्लोक ११ ।
महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन