Book Title: Mahakavi Harichandra Ek Anushilan
Author(s): Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 183
________________ दिये हैं । यह प्रथम श्लोक में ख्पक और शेष दो श्लोकों में क्लेष ने चार चाँद लगा स्वयंवर-वर्णन भारतीय सामाजिक व्यवस्था में विवाह को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है । स्त्री और पुरुष का सम्बन्ध प्रकृतिसमर्थित है क्योंकि उसके बिना सन्तान की उत्पत्ति असम्भव है । मनुष्य ने वैवाहिक बन्धन के द्वारा उस सम्बन्ध को नियन्त्रित किया है। यह नियन्त्रण पशुयोनि में नहीं है। स्त्री-पुरुष का सम्बन्ध अनियन्त्रित होने के कारण ही पशुयोनि में कौटुम्बिक व्यवस्था नहीं है। इसके विपरीत मनुष्य योनि में स्त्री-पुरुष का सम्बन्ध नियन्त्रित है इसलिए उसमें कौटुम्बिक व्यवस्था है । भारतीय साहित्य में विवाह के अनेक भेद मिलते हैं पर उनमें चार प्रमुख है - १. आर्ष विवाह, २. स्वयंवर विवाह, ३ असुर विवाह और ४. गन्धर्व विवाह | आई विवाह माता-पिता आदि संरक्षक जनों तथा समाज को सम्मति पूर्वक होता है । स्वयंवर विवाह में कन्या स्वयं ही वर को पसन्द करती है उसकी सम्मति पूर्वक ही यह विवाह होता है । असुर विवाह माता-पिता आदि की असहमति होने के कारण अपहरण पूर्वक होता है और गन्धर्व विवाह वर-कन्या के अनुराग पूर्वक स्वतः होता है । इन चार प्रकार के विवाहों में निरापद विवाह आर्ष विवाह ही है क्योंकि स्वयंवर विवाह की व्यवस्था प्रथम तो सर्वसाधारण के द्वारा शक्य नहीं है और किसी तरह शक्य होती भी है तो वह स्वयंवर के अनन्तर संघर्ष का कारण होता देखा गया है । असुर विवाह एक प्रकार की क्रान्ति है जिसकी स्वीकृति मनुष्य को विवशता की स्थिति में ही करनी पड़ती है, स्वेच्छा से नहीं । गन्धर्व विवाह में यद्यपि वर-कन्या की स्वीकृति होती है परन्तु उसके परिणाम भयंकर भी हो सकते हैं । अभिज्ञानशाकुन्तल में यद्यपि कालिदास ने दुष्यन्त तथा शकुन्तला के गन्धर्व विवाह का वर्णन किया है तथापि जराका भयंकर परिणाम भी उसी में प्रकट कर दिया है । दुर्वासा के शाप का सन्दर्भ लाकर यद्यपि उसकी भयंकरवा को कवि ने कम करने का प्रयास किया है तथापि जनमानस उस घोर से निःशंक नहीं होता । आज भी गन्धर्व विवाह के ऐसे माने कों दृष्टान्त देखे जाते हैं जिनमें वर का प्रेम स्थायी न रहकर मात्र क्षणस्थायी ही रहता है । कन्याओं को अपनी भूल का प्रायश्चित्त जीवन भर भोगना पड़ता है और वर अपनी विषय- पिपासा को शान्त कर अलग हो जाता है । स्वयंवर विवाह का भी इतिहास है । भारतवर्ष में सर्वप्रथम स्वयंवर का आयोजन वाराणसी के राजा अकम्पन ने अपनी पुत्री सुलोचना के लिए किया था। इस स्वयंवर का सुम्दर वर्णन दाक्षिणात्य कवि हस्तिमल्ल ने अपने 'विक्रान्त कौरवे' नाटक में किया १. चौखम्भा संस्कृत सीरिज पाराणसी से, पन्नालाल साहित्याचार्य द्वारा सम्पादित होकर प्रकाशित । १७१ महाकधि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन

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