Book Title: Mahakavi Harichandra Ek Anushilan
Author(s): Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 176
________________ तदानीं जगज्जयोचुतपञ्चनाणप्रयाणसूचकमा ञ्जिष्ठ दृष्य नियनिकाश पल्लविताशोकपेशलं सुवर्णश्शृंखलसंनद्धचन देवता चितपेटिका यमानर सालपल्लव समासीन को किलकुलं तरुणजनहृदयविदारणदारुणकुसुम बाणनख रायमाण किंशुक कुसुमसङ्घले मदननरपालकनकदण्डामितकेसरकुसुमभासुरं विलीन शिलीमुखजराभीरुवार विसरूपपाटलपटलं वियोगिजन स्वान्तनितान्त कृन्तन कुन्ता मितकैकदन्तुरितं वनमजायत । पू. ७६-७६ भाव यह है उस समय वन की शोभा निराली हो रही थी । कहीं तो वह वन जगत् को जीतने के लिए उद्यत कामदेव के प्रस्थान को सूचित करनेवाले मंजीठ रंग के तम्बुओं के समान पल्लवों से युक्त अशोक वृक्षों से मनोहर दिखाई देता था । कहीं सोने की सकिलों से जकड़ी चनदेवता की उत्तम पेटी के समान दिखनेवाले ग्राम के पल्लवों पर कोकिलाओं के समूह बैठे हुए थे । कहीं तरुण मनुष्यों के हृदय को विचारण करने में कठोर कामदेव के नाखूनों के समान सुशोभित पलाश वृक्ष के पुष्पों से व्याप्त था । कहीं कामदेवरूपी राजा के सुवर्णदण्ड के समान आवरण करनेवाले मौलश्री के फूलों से सुशोभित था । कहीं जिनपर शिलीमुख - भरें बैठे हुए है ( पक्ष में, शिलीमुख - बाण रखे हुए हैं ) ऐसे कामदेव के तरकस के समान गुलाब की झाड़ियों से सुशोभित था और कहीं वियोगी मनुष्यों के हृदय के काटने में भाले का काम करनेवाले केतकी के फूलों से व्याप्त था । नागरिक पुष्पा वचय करने के लिए उद्यत हैं । कोई पुरुष अपनी कान्ता को कोप से कलुषित पित्त देख कहता है प्रसारय दृशं पुरः क्षणमिदं वनं विन्दतां स्थलोत्पलकुलानि वै कलय तन्त्रि मन्दस्मितम् । पवन्तु कुसुमोच्चमा दिशि दिशि प्रहृष्टालयः स्फुटीकुरु गिरं पिकः सपदि मौनमाढकताम् ११५ ॥ पृ. ७८ हे तन्वि ! आगे दृष्टि तो फैलाओ जिससे यह वन, स्थल में विद्यमान नौलकमलों को प्राप्त कर सके। जरा मन्द मुसकान भी छोड़ो जिससे प्रत्येक दिशा में भ्रमरों को आनन्दित करनेवाले फूलों के समूह लड़ पड़े और जरा अपनी वाणी भी प्रकट करो जिससे कोयल शीघ्र ही चुप हो जाये । कोई एक पुरुष अपनी प्रणयिनी से कहता हैसञ्चारिणी खलु लता त्वमनङ्गलक्ष्मीरम्लान पल्लव करा प्रमदालिजुष्टा । यस्मा गुलुच्छयुगलं कठिनं विशाल शाखे शिरीषसुकुमारतमे मृगाक्षि ||६|| आमोद-निदर्शन (मनोरंजन) पु. ७८ 91५

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