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ही गिर रही हो, अथवा मुखरूपी चन्द्रमा की चांदनी ही हो, अषया कीर्ति का विकास हो हो, अथवा मुख को लक्ष्मी का हास्य ही हो ।
वह बालक माता का स्तन पीकर बार-बार दूध के कुरले उगल देता पा जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो कीति की तरंग ही बिखेर रहा हो।
फुछ ही दिनों में यह बालक मणियों के निर्मल फर्श पर घुटनों के बल चलने लगा था और अपनी ही परछाई को दूसरा बालक समक्ष ताड़न करता हुआ अत्यन्त सुशोभित हो रहा था !
क्रम-क्रम से वह बालक नसों को फैलती हुई कान्तिरूपी झरनों से सुशोभित अतएव फूलों से आच्छादित के समान दिखने वाले मणियों के आंगन में लड़खड़ाते परों से कोमल चरण कमलों की डग फैलाने लगा।
बाल-लीला का कौतुकावह वर्णन हम सोमदेव के यशस्तिलक-चम्पू में देखते हैं । बाण ने कादम्बरी में चन्द्रापीड के शैशव का वर्णन मात्र एक पंक्ति में समाप्त कर दिया है
‘क्रमेण कृतचूडाकरणादिक्रियाकलापस्य शिवमतिचक्राम चन्द्रापीडस्य'
महाकवि कालिदास ने भी रघुवंश के तृतीय सर्ग में रघु के बाल्यकाल का वर्णन मात्र एक श्लोक में पूर्ण किया है
उवाच धाश्या प्रथमोदितं वदो ययौ लदौमामवलम्ब्य पाङ्गुलिम् । अभूच नम्रः प्रणिपातशिक्षया पितुर्मुदं तेन ततान सोभकः ॥२५॥
- सर्ग २ अलंकार की दृष्टि से अर्हदास के पुरुदेवचम्पू में वाल्यभाव का अच्छा वर्णन हुया है।
इसी सन्दर्भ में धर्मशर्माभ्युदय का भी शिशु-वर्णन द्रष्टव्य है। भगवान् धर्मनाथ माता की गोद से उन्मुक्त हो पृथ्वी पर चलने का अभ्यास कर रहे है इसका वर्णन देखिए, कितना स्वाभाविक है
प्राच्या इवोत्थाय स मातुरङ्कतः कृतावलम्बो गुरुणा महीभृता । भूभ्यस्तपादः सवितेव बालकश्चचाल वाचालितकिङ्किणीद्विजः ।।७।। रिखम्पदाक्रान्तमहीतले वी स्फुरनखांशुप्रकारेण स प्रभुः । शेषस्य बाचाविधुरेऽस्य धावता कुटुम्बकेनेव निषेवितनमः ।।८।। बम्राम पूर्व सुनिलम्बमन्बरप्रवेपमानामपदं स बालकः ।
विश्वम्भरायां पदभारधारणप्रगल्भतामाकलयन्निव प्रभुः ।।९।। -सर्ग १ भाव स्पष्ट है।
प्रकीर्णक निर्देश
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