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की कूक सुनते ही अचछी-अच्छी सजावती स्त्रियां काम से पीड़ित हो जाती हैं। पर्वत के धार्मिक वातावरण का वर्णन करते हुए कवि ने कहा हैउद्भिद्म भीमभवसंसतितम्तुजालं
मार्गेऽपवर्गनगरस्य नितान्तदुर्गे । लब्ध्वा भवन्तमभयं जिन सार्थवाह
प्रस्थातुमुत्थितवतामयमयभूमिः ॥४०॥ हे जिनेन्द्र ! जन्म-मरणरूप भयंकर तन्तुओं के जाल को नष्ट कर आप-जैसे अभयदायी सार्थवाह को पा मोक्ष-मगर के अतिशय फठिन मार्ग में प्रस्थान करने के लिए उद्यत मनुष्यों की यह प्रथमभूमि है-प्राप्य स्थान है।
__इसी वसन्ततिलका छन्द में माघ द्वारा वणित रैवतक गिरि का पार्मिक वातावरण देखिए
मन्यादिचित्तपरिकर्मविदो विधाय
क्लेशग्रहाणमिह लब्धसबीजयोगाः । ख्याति च सत्त्वपुरुषान्यतयाधिगम्य । बान्छन्ति ताममि समाप्रतो निशे ५ ।।
__ --शिशुपाल., सर्ग ४ इस वर्णन में पर्वत का धार्मिक वातावरण कुछ अधिक स्पष्ट हुआ है। इसी सन्दर्भ में भारवि द्वारा वर्णित हिमालय का धार्मिक वातावरण भी देखिए
चीतजन्मजरसं परं शुचि ब्रह्मणः पदमुपैतुमिच्छताम् । आगमादिव तमोपहादितः संभवन्ति मतयो भवच्छिदः ॥२२॥
-किरातार्जुनीय, सगं ५ धर्मशर्माभ्युदय में विन्ध्मगिरि का वर्णन करते हुए कवि ने भ्रान्तिमान् अलंकार का कितना मधुर उदाहरण प्रस्तुत किया है ? यह देखिए---
बिम्बं विलोक्य निजमुभवलरत्नभित्तो क्रोषात्पतिविप इतीह ददौ प्रहारम् । तद्भग्नदीर्घदशन: पुनरेव तोषाल्लीलारसं स्पृति पश्य गजः प्रियेति ।।१९।।
प्रभाकर धर्मनाथ से कह रहा है-करा इधर देखिए, इस उज्ज्वल रस्नों की दीवाल में अपना प्रतिबिम्ब देख, यह हाथी क्रोधपूर्वक यह समझकर बड़े जोर से प्रहार कर रहा है कि यहाँ हमारा पात्र दूसरा हाथी है और इस प्रहार से जब इसके दांत टूट जाते हैं तब उसी प्रतिबिम्ब को अपनी प्रिया समझ बड़े सन्तोष से लोलापूर्वक उसका स्पर्श करने लगता है।
पर्वत की बनस्थली का वर्णन करते हुए कवि ने जो श्लेषोपमा का वैभव विखाया है उससे उसकी काव्यप्रतिभा का चमत्कार स्पष्ट ही परिलक्षित होता है
कुशोपरुद्धां द्रुतमालपल्लवां वराप्सरोभिर्महितामकल्मषाम् । नृपेषु रामस्त्वमिहोररीकुरु प्रसीद सीतामिव काननस्थलीम् ।।५६||
वर्णन