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स्तम्म ३ : प्रकृति-निरूपण
यद्यपि ऋतुचक्र अपने नियत क्रम के अनुसार परिवर्तित होता है तथापि दिव्य नायकों की प्रभुता प्रकट करने के लिए उसका एक साथ प्रकट होना भी स्वीकृत किया गया है। माघ ने श्रीकृष्ण की समारापना के लिए रैवतक गिरि पर समस्त ऋतुओं के अवतार का जैसा वर्णन किया है वैसा ही हरिचन्द्र ने बर्मनाथ तीर्थकर की आराधना के लिए बिन्ध्याचल पर एक साप समस्त ऋतुओं के अवतरण का वर्णन किया है। असन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमन्त और शिशिर ये छह ऋतुएँ है जो चैत्र से लेकर फाल्गुन तक वो-दो मासों में अवतीर्ण होती है। ऋतुएँ आती हैं और जाती है; उनमें कोई खास बात दृष्टिगोचर नहीं होती परन्तु जब कवि की कल्पना-रूप तूलिका उन ऋतुओं का चित्र खींचती है तब उनमें एक अद्भुत-सा आकर्षण हो जाता है ।
धर्मशर्माभ्युदय के दशम सर्ग में बिन्ध्याचल का वर्णन है । उसकी प्राकृतिक शोभा देखने के लिए जन्न भगवान् धर्मनाथ उस पर्वत पर विहार करते है तब उनके पुण्यप्रभाव से वहां छहों ऋतुएं प्रकट हो जाती है। द्रुतविलम्बित छन्द की मधुरध्वनि में कवि ने उन ऋतुओं का वर्णन किया है। श्लोक के चतुर्थ पाद में एक पद का यमक भी दिया है जिससे उसकी शोभा, नाक पर पहने हुए मोती से किसी शुभ्रवदना के मुखकमल की शोभा के समान निखर उठी है। समूचा ग्यारहया सर्ग ऋतुवर्णन से सम्बद्ध है। यह ७२ श्लोकों में पूर्ण होता है। प्रारम्भिक पीठिका के बाद इन वसन्त आदि ऋतुओं का ही विस्तृत वर्णन इन इलोकों में किया गया है। उदाहरण के लिए कुछ छन्द प्रस्तुत है
वसन्त ऋतु में आम मौर गये, अशोक पर लाल-लाल फूल निकल आये तथा टेसू के वृक्षों ने अपनी लालिमा से वनवसुधा को रंगीन बना दिया। इन सबका वर्णन देखिए कितना मुन्दर है ?
तदभिधानपदैरिव षट्पदैः शबलिताम्रतरोरिह मजरी।
कनकल्लिरिव स्मरघन्विनो जनमदारमदारमबजसा ॥१२॥
नामाक्षरों की तरह दिखनेवाले भौरों से चित्रित आन-वृक्ष की मंजरी कामदेवरूप पानुष्क के सुवर्णमय भाले की तरह स्त्रीरहित मनुष्य को निश्चय ही विदीर्ण कर रही थी।
प्रति-निरूपण