Book Title: Mahakavi Harichandra Ek Anushilan
Author(s): Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 162
________________ भवभूति के उत्तररामचरित सम्बन्धी निम्नांकित श्लोक का स्मरण कराता है वनदेवता ( अयं विकीर्य ) यथेच्छाभोग्यं को वनमिषमयं मे सुदिवसः सतां सद्भिः सङ्गः कथमपि हि पुण्येन भवति । तरुच्छाया तोयं यपि तपसा योग्यमशन फलं वा मूलं वा तदपि म पराधीनमिह वः ॥शा द्वितीय अंक जोवन्धरचम्पू का प्रकृति-वर्णन संस्कृत साहित्य में प्रकृति-वर्णन के लिए महाकवि भवभूति की प्रसिद्धि है, परन्तु जब हग जीवन्धरचम्पू का प्रकृति-वर्णन देखते हैं तब कहीं उससे भी अधिक आनन्द का अनुभव होता है । निर्मल नमस्तल में फैली हुई चांदनी, रात्रि का घनघोर अन्धकार, सूर्योदय, सूर्यास्त, लहराता हुआ सागर, प्रात:काल का मन्द-शीतल और सुगन्धित समीर, पक्षियों का फलरव, हरे-भरे कानन, आकाश में छायी हुई श्यामल घनघटा, यावानल और उसके बीच रुके हुए हाथियों के झुण्ड, जन-जम के मानस में आनन्द करनेवाला वसन्त, मेघ वृष्टि के बाद बहता हुआ पानी, ग्रीष्म के रूक्ष दिन मोर पावस के सरस दिन---इन राधका कवि ने जितना सरस वर्णन किया है उतना हम अन्यत्र कम पाते हैं। सबके उद्धरण देना सम्भव नहीं है, फिर भी कुछ पंक्तियाँ उद्धृत करने का लोभ संवरण नहीं कर सक रहा हूँ। देखिए अष्टम लम्भ में दण्डकारण्य का वर्णन-- तदन्वत्यद्भुतसंनिवेशं दण्डकारण्यप्रदेशमवलोकितुफामा वयम्, तत्र तत्र विद्वत्म, क्वचन विजम्भितकुम्भीमदकुम्मस्थलमुक्तमुक्ताकुलसिकतिलं वनविहरणश्रान्तनिमज्जपुलिन्दसुन्दरीवदनाम्भोजपरिष्कृतं गभीरमहाहवम्, कुत्रपिटलीमुखकरकम्पितमहीरुहशाखानिपतितपर्णी चसमाघातकुपितमुप्तसमुरियतशार्दूलवाव्यमानगवरजनसरमसारूढालिहानोकहचयम् , श्ववित्तरुमूलसुखसुसानि तमालस्तोमनिभानि भन्लूककुलानि, क्वचित्तपनकिरणसंतप्तवकों पद्माकरसमीपमानीय निजकरनिर्मूलितबालमृणालवलयं तदङ्ग निक्षिप्य पयोजरजःसुगन्धिशीतलजलशीकरनीकरांस्तन्मुखे संसिच्य शुण्डावण्डविघृतविशालपपत्रमालपत्रीकुर्वन्तं वशावरुलभम्, कुत्रचित्साघज्ञं लोचनयुगलं क्षणमुम्भील्य पुनः सुषुप्सु पञ्चवदनसञ्चयम्, सविस्मयमवलोकमानाः, क्वचन तापसजनसङ्कुलप्रदेश प्रविशमानाः, क्रमेण किञ्चित्तस्मूलमावसन्ती पुण्यमातरं पश्यामः स्म ।'-पृ. १४९-१५० । एकाफी वन में बिहार करते हुए जीवन्धर बनबसुन्धरा की शोभा का समवलोकन करते हैं । देखिए पंचम लम्भ का एफ सन्दर्भ तदनु कुरुवंशकेसरी केसरीव तत्र तत्र निर्भय एव विहरन्, क्वचिदतिविततानो कहकुलविलसितमसूर्यपश्यं तरक्षुमृगाधिष्ठानम्, स्वचन तरुषण्डे कादम्बिनीभ्रान्त्या दूरोनमितकेकागर्भकण्ठं प्रबलपुरोवातसंतादितशिखण्डं नीलकण्ठम्, कुचिन्महागुल्मान्तरकुटुम्बिशवरफदम्बकम्, फुत्र च नीपपादपस्कम्पनिषष्णशुण्डादाडं करिणीसहायं शुण्डाल महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुपीकम १५०

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