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जहाँ-तहाँ तीर्थस्थानों की पूजा करते हुए जीवन्धरस्वामी बड़ी शीघ्रता से बागे लढ्ये लाते थे । सम्झतेऐपोवन रेखा जो कहीं तो वस्त्र की इच्छा रखनेवाले तपस्वियों के द्वारा खींची आनेवाली वृक्षों की छाल को मर्मर ध्वनि से saran था, कहीं साधुओं के हाथ में सुशोभित कमण्डलु के मुख में झरने का जल भरने से समुत्पन्न कलकल शब्द से सुशोभित था, कहीं बालकों के द्वारा तोड़कर फेंकी हुई मूंज की मेखलाओं से ब्यास था, कहीं कुमारियों के द्वारा भरी जानेवाली बालवृक्षों की क्यारियों से युक्त था, कहीं उसके सरोवर का जल गेरुआ वस्त्र हो रहा था, कहीं अच्छी तरह सींचे गये वल्कलों को शिखाओं से की रेखाओं से सुशोभित था, कहीं व्याघ्रचर्म से निर्मित आसनों पर बैठे हुए जप करने - वाले लोगों से व्यास था, कहीं उन तपस्वियों से सुशोभित था जो स्नान के समय लगे हुए शेवाल की छटा के समान दिखनेवाले जटासमूह के धारक होने से चारों ओर देदीप्यमान अग्नियों की फैली हुई धुएँ की रेखाओं से आलिंगित के समान जान पड़ते थे, जिन्होंने अपना मुजदण्ड ऊपर की ओर फैला रखा था और पंचाग्नि के मध्य तपस्या करने में अत्यन्त निपुण थे । कहीं उन तपस्वी लोगों की स्त्रियों के द्वारा वहाँ नीवार पकाया जाता था और कहीं उन्हीं के पुत्रों के द्वारा काटे जानेवाले गीले ईंधन से
धोने से लाल-लाल निकलनेवाले जल
व्याप्त था ।
'साधुओं के मिथ्या तप को देखकर दयालु हृदय जीवम्बर ने उन्हें अहिंसा धर्म का उपदेश देते हुए कहा कि जिस प्रकार चावलों के बिना अग्नि, पानी आदि समस्त सामग्री इकट्ठी कर लेने पर भी भोजन बनाने का उपक्रम सफल नहीं होता उसी प्रकार तस्वज्ञान के बिना केवल शरीर को कष्ट पहुँचाने मात्र से तपस्या सफल नहीं होती है | आप लोग जटाजूट रखाकर, ललाट पर जो सूर्य का सन्ताप झेलते हैं वह सब व्यर्थ है । हे विद्वानो ! सदा निष्फल रहने से यह हिंसायुक्त तपश्चरण करना ठीक नहीं है । आप लोग जो बड़ी-बड़ी जटाएं रखे हुए हैं स्नान के समय बहुत से जन्तु उनमें लग जाते हैं पश्चात् वे ही जन्तु अग्नि में गिरकर क्षण-भर में नष्ट हो जाते हैं - यह आप लोग स्वयं देख लें । अतः आप लोग क्लेशकारी इस तप को छोड़कर अहिंसक तप धारण करो ।
जीवन्धर स्वामी के इस उपदेश से प्रभावित होकर उन साधुओं ने हिंसापूर्ण तप परित्याग कर अहिंसापूर्ण तप को स्वीकृत किया ।
इसी सन्दर्भ में भगत निम्न श्लोक --
आरामोऽयं वदति मधुरैः स्वागतं भुङ्गशब्दैः
पुष्पात विटपिविटपेरानतिद्वाक् तनोति पाद्यार्थ्यादीन् दिशति भवलेस्तत्सरस्याः पयोभि
रित्येवं श्रीकुरुकुलपतेरादधे भूरिशङ्काम् ॥२३॥ पृ. ११३
१. जोबन्धरम्पू, पृ. १०१, श्लोक १-११ ।
प्रकृति-निरूपण
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