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यतः कुमुविनियों के साथ सम्भोग करनेवाले चन्द्रमा ने अपने कलंक को दुगुना कर लिया है इसलिए मानो यह रात्रि नसि में तत्पर और बम्बरान्त--आकाशाम्त (पक्ष में, वस्त्रान्त ) में लग्न इस चन्द्रमा को अपमानित कर छोड़कर जा रही है।
प्रातःकाल के समीर से हिलते हुए दीपकों का वर्णन देखिएते भावाः करणविवर्तनानि तानि प्रौतिः सा मणितेषु कामिनीनाम । एककं तदिव रतामृतं स्मरन्तो धुम्वन्ति श्वसनहताः शिरांसि दीपाः ॥६।।
स्त्रियों के वे भाव, वे आसनों के परिवर्तन और रतिजनित कोमल शब्दों में यह अलौकिक चातुरी-इस प्रकार एक-एक आश्चर्यकारी रत का स्मरण करते हुए दीपक वायु से ताड़ित हो मानो सिर हो हिला रहे हैं। इसी से मिलता हुआ भाव माघ ने भी प्रकट किया है
अनिमिषमविरामा रागिणी सर्वरावं
, नवनिधुबनलीलाः कौतुफेनातिवीक्ष्य । इदमुदवसितानामस्फुटालोकसंपसय में : सनी पनि ६i
शिशुपालवध, सर्ग १८ बजनेवाली भेरी के प्रणाद का वर्णन देखिए कितना कल्पनापूर्ण हैराजानं जगति निरस्य सूरसूतेनाकान्ते प्रसरति दुन्दुभैरिदानीम् । यामिन्याः प्रियतमविप्रयोगदुःखहत्सन्धेः स्फुटत इवोद्भटः प्रणादः ॥८।।
जब राजा चन्द्रमा ( पक्ष में, नृपति ) को नष्ट कर अरुण ने सारे संसार पर आक्रमण कर लिया तब बजनेवाली दुन्दुभियों का शब्द एसा फैल रहा था मानो पतिविरह से फटते हुए रात्रि के हृदय का शब्द ही है ।
पअपराग को उलानेवाली प्रभात वायु का वर्णन देखिए
संभोगश्रमसलिलरिवानानामनेषु प्रशममितं मनोभवाग्निम् ।
उन्मीलज्मलजरजःकणान्किरन्तः प्रत्यूषे पुनरनिलाः प्रदीपयन्ति ॥१२॥
सम्भोगजनित स्वेद जल से स्त्रियों के दारीर में जो कामाग्नि बुक्ष चुकी थी उसे प्रातःकाल के समय खिलते हुए कमलों की पराग के छोटे-छोटे कण बिखेरनेवाली वायु पुनः प्रज्वलित कर रही है। इससे मिलता हुआ भाव शिशुषालयध में भी प्रकट किया गया है
अविरतरतलीलायासजातश्नमाणा
मुपशममुपयान्तं निःसहेभङ्गेऽङ्गनानाम् । पुनरुषसि बिवक्तातरिश्वावचूर्ण्य ज्वलयति मदनाग्निं मालतीनां रजोभिः ॥१७॥
-शिशुपाल. सर्ग ११
प्रकृति-निरूपण
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