Book Title: Mahakavi Harichandra Ek Anushilan
Author(s): Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 136
________________ राहु भाकाशांगण में संशय को प्राप्त हुआ था ॥१९॥' 'उस नगरी के बड़े-बड़े महलों को देखकर ही मानी देवेन्द्र शाह inE. काररहित हो गया है, कमलों से सुशोभित परिखा को देखकर ही मानो गंगा नदी विषाव-खेद ( पक्ष में शिव ) को प्राप्त हुई है, वहां के जिनमन्दिरों को देखता हुषा सुमेरु पर्वत अपने दयनीय शब्द कर रहा है ( पक्ष में-सुवर्णमय सुन्दर शरीर धारण करता है ) और देवों की नगरी अमरावती भी उस नगरी को देखकर तथा शोक से आकुल हो बल के साथ वेष रखनेवाले ( पक्ष में पल नामक दैत्य को नष्ट करनेवाले ) इन्द्र को स्वीकृत कर चुकी है ॥२०॥ धर्मशर्माभ्युदय का नारी-सौन्वय प्रथम लो प्रकृति ने ही पुरुष शरीर की अपेक्षा स्त्री के शरीर में सौन्दर्य का समावेश अधिक किया है फिर कवि ने अपनी कलम से, चित्रकार ने अपनी तूलिका से और कलाकार ने अपनी छेनी से उसके सौन्दर्य को उभारफर प्रस्तुत किया है। राजा महासेन की रानी सुव्रता के सौन्दर्य-वर्णन में कवि ने जो विभुता प्राप्त की है यह अन्य काव्यों में दुर्लभ है । कवि की अनुप्रासपूर्ण भाषा में उसकी युवावस्था का वर्णन देखिए सुधासुधारश्मिमृणालमालतीसरोज-सारैरिव बेघसा फुतम् । शनैः शनोग्ष्यमतीरय सा दवौ सुमध्यमा मध्यममध्यमं वयः ॥२-२६॥ सुन्दर कमरवाली उस सुव्रता ने धीरे-धीरे मौग्थ्य अवस्था को ब्यतील कर ब्रह्मा द्वारा अमृत, चन्द्रमा, मृणाल, मालती और कमल के स्वत्व से निर्मित की तरह सुफुमार तारुण्य अवस्था को धारण किया। रानी सुबवा के सौन्दर्य रस का एकत्र वर्णन देखिएस्मरेण तस्याः किल चारतारसं जनाः पिबन्तः शरजर्जरीकूताः । स पीतमात्रोऽपि कुतोऽन्यथागलप्सवङ्गतः स्वेदजलछलाद् बहिः ॥२-३७॥ जो भी मनुष्य उसके सौन्दर्यरस का पान करते थे, कामदेव उन सबको अपने बाणों द्वारा जर्जर कर देता था। पदि ऐसा न होता तो वह सौन्दर्यरस, पीते ही साथ स्वेद जल के बहाने उनके शरीर से बाहर क्यों निकलने लगता? १. यस्पासादपरम्पराप्रतिफल देवानास्वाना भेद ष्टिनिमेषकौशलव शाजावाति नौ सतिः । यद्वैयशिरोगृहस्थमुवतीवमत्रन्दुषिम्भ विधो ___ बिम्म चत्र समीक्ष्य संवायमगात स्वानुरभाजिरे ।शा-लम्भ । २. यस्तोधालवलोक्य निर्जरपति निर्निमैघोऽभव यस्या वीक्ष्य सरोजशोभिपरिख पा विधादं गता। यत्रत्यानि जिनालयानि कलयन्मेरु स्वकात स्वर स्वीच च मलविर्ष मुरपरीयां वीक्ष्य शोकाकुला ॥२०॥ १२५ महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन

Loading...

Page Navigation
1 ... 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221