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नखशिख वर्णन में कवि ने ३८ से ६० श्लोक तक बहुभाग घेरा है । प्रत्येक अंग के वर्णन में कवि ने उत्प्रेक्षा की जो लम्बी-लम्बी उड़ानें भरी है वे पाठक के चित्त को आश्चर्य में डाल देती है । रानी के कपोलों का वर्णन देहिए
कपोलहेतोः खलु लोकचक्षुषो विधिय॑षात्पूर्णसुधाकरं द्विधा । विलोक्यतामस्य तथाहि लाञ्छमछलेन पश्चात्कृवसीवनवणम् ॥२-५०॥
ऐसा लगता है मा निशाना ने मम चपलोना के भागल पनाने के लिए पूर्णचन्द्र के दो टुकड़े कर दिये हों। देखो न, इसीलिए तो उस चन्द्रमा में कलंक के बहाने पीछे से की हुई सिलाई के चिल्ल विद्यमान है।
___ मस्तक पर सुशोभित घुघराले बालों का वर्णन देखिए, कितनी प्रवाहपूर्ण भाषा में दिया है ?
अनिन्द्यदन्तद्युतिफेनिलाधरप्रवालशालिन्युक्लोपनोत्पले । तदास्यलावण्यसुघोदधौ बभुस्तरङ्गमङ्गा इव भङ्गुरालकाः ॥२-५९।।
दांतों की उज्ज्वल कान्ति से फेनिल, अधरोष्ठरूपी मूंगा से सुशोभित और बड़ेबड़े नेत्ररूपी कमलों से युक्त उसके मुख के सौन्दर्य-सागर में घुघुराले बाल लहरों की तरह सुशोभित हो रहे थे।
मुख को शोभा का वर्णन करने के लिए कवि ने चन्द्रमा को जो उपालम्भ दिया है वह क्या कहीं अन्यत्र प्राप्त है ?
सदाननेन्योरपिरोहता तुलां मृगाङ्कचित्तेऽपि न लमितं त्वया । यतोऽसि कस्तत्र पयोधरोन्नती स मूढ यत्राधिकं व्यराजत ।।२-६०।।
रे चन्द्र l उस सुग्रता के मुखचम्ट्र की तुलना को प्राप्त होते हुए सुझे चित्त में लज्जा भी न आयी ? जिन पयोषरों ( मेघों, स्तनों ) की उन्नति के समय उसका मुख अधिक शोभित होता है उन पयोघरों { मेवों ) के समय तेरा पता भी नहीं चलता।
समन्न सौन्दर्य का वर्णन देखिएचकार यो नेत्रचकोरचम्बिकामिमामनिन्द्यां विधिरन्य एव सः । कुतोऽन्यथा वैद नयान्वितात्ततोऽप्यभूदमन्दति रूपमीदृशम् ।।२-६४।।
-सुव्रता के पति राजा महासेन उसको सुन्दरता का स्वयं विचार करते हुए कहते हैं-जिस विधाता ने नेत्ररूपी चकोरों के लिए चांदनी तुल्य इस सुव्रता को बनाया है यह अन्य ही है अन्यथा वेदनयान्वित-वेवज्ञान से सहित ( पक्ष में वेदना से सहित ) प्रकृत ब्रह्मा से ऐसा अमन्द- कान्ति-सम्पन्न रूप कैसे बन सकता है ?
यह तयोगेऽतयोगनामक अतिशयोक्ति अलंकार का सुन्दर उदाहरण है।
१. अये मृगाङ्क ! ख मत्र पयोधरोन्नती विशुतो भवसि स सत्राधिक चकासामास अमस्तस्य तुलारोहणे
सया तसिलस्जिसमिति भारः । २. वेदनया वार्धम्यवनिपीडया पले हानेर अन्विताव साहिताद मेदना ज्ञानपीक्ष्योः पशि विश्व लोचनः ।
वर्णन
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