Book Title: Mahakavi Harichandra Ek Anushilan
Author(s): Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 141
________________ कहते हैं कि यह नवीन पल्लथ ही है, कोई कहते है कि यह मुख' को कान्तिरूपी समुह का मूंगा ही है पर हम कहते हैं कि यह दन्तपक्तिरूपी मणियों की रक्षा के लिए लाल से लगायो हुई मनोहर मुहर ही है ।।६२॥ बहुत भारी माधुर्यं से भरी हुई उसको बाणी कोयलों के कलरव की निम्था करने में निपुण थी। वह अमृत को लज्जा प्रदान करती थी, मुननका दास का तिरस्कार करती थी, पौंछे और ईख को रसीली पाक्कर को खण्डित करती थी और श्रेष्ठ मधु को भी नीचा दिखाती थी ॥६३॥ उसकी नाक ऐसी जान पड़ती थी मानो मुख रूपी चन्द्रबिम्ब से नूवन अमृत की एक मोटी धारा निकल कर जम गयो हो अथवा दन्त-पंक्ति रूपी मोतियों और मणियों को तौलनेवाली तराजू की दण्डी ही हो ॥६४॥ उस गन्धर्वदत्ता के मुखरूपी सदन में जगद्विजयी कामदेव रहता था इसलिए उसने उसको टेकी भौंह को धनुष और उसकी आँखों को बाण बना लिया था। यही कारण है कि उसकी कमलतुल्य आँखों के अग्रभाग में जो लालिमा यी वह तरुण मनुष्यों के मर्मस्थल छेदने से उत्पन्न धिर सम्बन्धी लालिमा ही थी ॥६५॥ उत्पल के बहाने मनुष्यों के नेत्ररूपी पक्षियों को पकल कर रखनेवाले उसके दोनों कान ऐसे जान पड़ते थे मानो मनुष्यों के नेत्ररूपी पक्षियों को बांधने के लिए विधाता के द्वारा मासे या दो पा ही हो !!६! ऐसा जान पड़ता है कि चन्द्रमा रात्रि के समय उसके मुख को कान्तिरूपी धन को चुराकर आकाश मार्गरूपी धन में वेग से भागता है और दिन के समय कहीं जाकर छिप जाता है। यदि वह कान्तिरूपी धन को हरने वाला नहीं है तो फिर उसके बीच में यह कलंक क्यों है ? ॥६७ | उस कृशांगी के केश क्या ये ? मानो मुखचन्द्र को कान्ति रूपी समुद्र के फैले हुए शेयाल ही थे, अथवा मुखरूपी चन्द्रमा के इधर-उधर इकट्ठे हुए सघनमेघ ही थे, अथवा कामरूपी अग्नि से उठता हुआ घूम का समूह ही था, अथवा मुखकमल पर महराते हुए प्रमरों का समूह ही था ।।६८।। वह गन्धर्वदत्ता क्या किन्नरांगना थी, या असुर को स्ली थी, या कामदेव की स्त्री-रति थी, या सुवर्ण की लता थी, या बिजली थी, या तारिका थी अथवा क्या नेत्रों को भाग्य रेखा थी ? ॥६९|| गन्धर्वदता के समान अन्य स्त्रियों का भी सौन्दर्य यथास्थान गद्य-पद्य में अंकित किया गया है । सबके उद्धरण इस अल्पकाय लेख में देना सम्भव नहीं है। १. ललाटलेरणाशमलेन्दु-निर्गमासुधोरुघारेव घनस्वमागता | तदीगनासा विजरस्नहत्तेस्तुलेम कात्या जगदम्यतोलयह ॥५३॥ धर्मः सर्ग २ वर्णन १३९ १७

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