Book Title: Mahakavi Harichandra Ek Anushilan
Author(s): Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 142
________________ जोवल्परचम्पू की नेपथ्य-रचना ዓ अपनी पुत्री गम्बदत्ता "तुतीय लम्भ के अन्त में विद्याधरों का राजा गरुडवेग, का जीवन्धर कुमार के साथ पाणिग्रण करने के लिए समुद्यत है। विवाह के प्रारम्भ में होनेवाली नेपथ्य रचना का प्रारम्भ गरुडवेग के द्वारा किये हुए मंगलस्नान से शुरू होता है । विद्याधरों के राजा गरुडवेंग ने आकर स्फटिक के पीठ पर स्थित देवदम्पतीतुल्य वधूवर का अपनी भुजारूपी सर्प के फणामणि के समान दिखनेवाले मणिमय कलशों से झरती हुई जलधाराओं के द्वारा अभिषेकमंगल --- मांगलिकस्नान पूर्ण किया । उस समय जलधारा की सफ़ेदी हाथ के नाखूनों की कान्ति से दूनी हो रही थी और भुजारूपी वंश से निकलनेवाले मोतियों के शरनों की सम्भावना बढ़ा रही थी क्षीरसमुद्र के फेन समूह के समान दिखनेवाले वस्त्रों को पहने हुए वे दोनों दम्पती अलंकारगृह के मध्य में हीरकजटित पीठ पर पूर्व दिशा की ओर मुख कर बैठाये गये । इन दोनों के शरीर स्वभाव से ही सुन्दर थे, यहाँ तक कि आभूषणों को भी सुशोभित करनेवाले थे, इसलिए उनमें आभूषण पहनाने का प्रयोजन केवल मंगलाचार ही था, शोभा बढ़ाना नहीं । अथवा भूषण - समूह की शोभा बढ़ानेवाले उनके शरीर में जो आभूषण पहनाये गये थे वे केवल दृष्टिदोष को नष्ट करने के लिए ही पहनाये गये थे । सर्वप्रथम उस खंजनलोकमा के शिर पर सखी ने वह सोमन्त-मांग निकाली थी जो कि मुख की कान्तिरूपी नदी के मार्ग के समान जान पड़ती थी और सदनन्तर उसपर उस नदी के फेनपुंज के समान दिखनेवाली फूलों की माला पहनायी गयी थी। इसके मुखपर नीलमणि की बहु वेदी पहनायी गयी थी जो मुखरूपी चन्द्रमा के कलंक - चिह्न के समान जान पड़ती थी और इसके पश्चात् आँखों में अंजन लगाया गया जो मुख पर आक्रमण करनेवाली आंखों की सीमान्त रेखा के समान जान पड़ता था । आभूषण पहनाने वाली सखी-जनों ने गन्धर्वदसा के कपोल पर जो मकरी का चिह्न बनाया था वह ऐसा सुशोभित होता था मानो 'यह कामदेव की पताका है ऐसा समझकर साक्षात् कामदेव के पताका की मकरी हो आ पहुँची हो अथवा उसके कपोलमण्डल के सौन्दर्य-सरोवर में जो युवकजनों के नेत्ररूपी पक्षी पड़ रहे थे उन्हें बाँधने के लिए विधाता ने एक जाल ही बना रखा हो । १. पृष्ठ ६७-६८ । मार्ग २. सीमन्तं परिक्षन् खलनशी मक्त्रप्रभा निम्नगाममालिकाच विदधे शुकेनपुत्र यिताम् । आस्थेनोलललाटिका सहचरीत्रेन्दुलक्ष्म्या मितामक्ष्णोरञ्जनमान नाक्रमकृतीः सीमन्त रेखामि ॥४६॥ १३० महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन

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