Book Title: Mahakavi Harichandra Ek Anushilan
Author(s): Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 150
________________ अधः कृतस्तावदनम्लोकः श्रिया किमुस्त्रिदशालयो मे । इत्यस्य रोपालाने भारमान २१॥ सुमेरु पर्वत गया था ? मैंने अनन्तलोक — पाताल लोक ( पक्ष में अनन्त जीवों का लोक ) को तो नीचे कर दिया फिर यह विदेशालय स्वर्ग ( पक्ष में, सीनगुणितदश-तीस जीवों का घर ) लक्ष्मी द्वारा मुझसे उच्च उत्कृष्ट ( पक्ष में, ऊपर) क्यों है ? इस प्रकार स्वर्ग को देखने के लिए पृथिवी के द्वारा उठाया हुआ मानो मस्तक ही था । उस सुमेरु पर्वत पर जो लाल-लाल कमल थे वे मानो क्रोध से लालिमा को धारण करने वाले नेत्र ही थे । परिस्फुरत्काञ्चनकायमाराविभावरीवासरयो भ्रमेण विडम्बयन्तं नवदम्पतीभ्यां परीयमाणानलपुञ्जलीलाम् ॥२२शां उस सुमेरु पर्वत का सुवर्णमय शरीर चारों ओर से चमचमा रहा था और दिन तथा रात्रि उसकी प्रदक्षिणा दे रहे थे इससे ऐसा जान पड़ता था मानो नवीन दम्पती के द्वारा परिक्रम्यमाण — प्रदक्षिणा दिये जाने वाले अग्निसमूह की शोभा का अनुकरण ही कर रहा हो । मरुदृध्वनद्वंशमनेकलाल रसालसंभावित सम्मर्थलम् । धृतस्मरात ङ्कमिवाश्रयन्तं वनं च गानं च सुराङ्गनानाम् ||३० ॥ वह पर्वत मानो काम का आतंक धारण कर रहा था अतः जिसमें वायु द्वारा वंश शब्द कर रहे है, जिसमें ताड़ के अनेक वृक्ष लग रहे हैं, और जिसमें आम्रवृक्षों के समीप मदन तथा इलायची के वृक्ष सुशोभित हैं ऐसे वन का, एवं जिसमें देव लोग घाँसुरी बजा रहे हैं, जो ताल से सहित है, रस से अलस है, और कामवर्धक गीतमन्यविशेष से युक्त है ऐसे देवांगनाओं के गान का आश्रय लिये हुए था । त्रिशालदन्तं घनवानवारि प्रसारिवोद्दाम कराग्रदण्डम् | उपेयुषी दिग्गजपुङ्गवस्य पुरो दधानं प्रतिमल्ललीलाम् ॥। ३२ ।। वह सुमेरु पर्वत, सम्मुख आने वाले ऐरावत हाथी के आगे उसके विपक्षी की शोभा धारण कर रहा था, क्योंकि जिस प्रकार ऐरावत हाथी विशालदन्त—बड़े-बड़े दांतों से युक्त था उसी प्रकार वह पर्वत भी विशालदन्त - बड़े-बड़े तट अथवा बड़े-बड़े चार जयन्त पर्वतों से युक्त था, जिस प्रकार हाथी घनदानवारि - अत्यधिक मदजल से सहित था उसी प्रकार वह पर्वत भी घनदानवारि- बहुत भारी देवों से युक्त था, और जिस प्रकार ऐरावत हाथी अपने उत्कट कराग्रदण्ड - शुण्डापदण्ड को फैलाये हुए था उसी प्रकार वह पर्वत भी अपने उत्कट करा - किरणाप्रदण्ड को फैलाये हुए था । - जिनागमे प्राज्यमणिप्रभाभिः प्रमिनरोमाञ्चमिव प्रमोदात् । समीरणान्दोलबालतालैर्भुजैरिवोल्कासित लास्यलीलम् ||३५|| वह पर्वत उत्तमोत्तम मणियों की किरणों से ऐसा जान पड़ता था मानो जिनेन्द्र भगवान् का आगमन होनेवाला है अतः हर्ष से रोमांचित ही हो रहा हो और वायु से १३८ महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन

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