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स्तम्भ १ : साहित्यिक सुषमा
धर्मशर्मास्युदय को काव्य-पीठिका कवि कैसे हुआ जाता है ? तथा काव्य में किस-किस तत्त्व की आवश्यकता है ? इसका सुन्दर विश्लेषण कवि ने फाव्य के प्रारम्भ में ही किया है । वे लिखते हैं
अर्थ' भले ही हृदय में स्थित हो परन्तु जिसे काव्य-रचना की शक्ति प्राप्त नहीं है ऐसा मनुष्य कवि नहीं हो सकता क्योंकि पानी अधिक भी भरा हो फिर भी कुत्ता बिह्वा से जल का स्पर्श छोड़कर उसे अन्य प्रकार से पीना नहीं जानता।।
रमणीय अर्थ का प्रतिपादक शब्द-समूह ही काव्य कहलाता है, यह तत्त्व हृदयंगत करते हुए कवि ने कहा है
वाणी', अच्छे-अच्छे पदों से सुशोभित क्यों न हो परन्तु मनोहर अर्थ से शून्य होने के कारण विद्वानों का मन सन्तुष्ट नहीं कर सकती। जैसा कि यूवर से सरता हुआ दूध का प्रवाह यद्यपि नयनप्रिय होता है देखने में सुन्दर होता है तथापि मनुष्यों के लिए रुचिकर नहीं होता।
कवि की वाणी में शब्द और अर्थ-दोनों की गरिमा को स्वीकृत करते हुए कहा है
___ बड़े पुण्य से किसी एक आदि कवि की ही वाणी शब्द और अर्थ-दोनों की विशिष्ट रचना से युक्त होती है। देखो न, चन्द्रमा को छोड़कर अन्य किसी की किरण अन्धकार को दूर करने और अमृत को शरानेवाली नहीं होती।
___ उपयुक्त शब्दों द्वारा कवि ने, सुकवि बनने के लिए शक्ति, व्युत्पत्ति और प्रतिभा इन तीनों की आवश्यकता प्रकट की है। जैसा कि काव्यमीमांसा में रामशेखर ने भी लिखा है
"काव्यकर्मणि कवेः समाधिः परं व्याप्रियते", इति श्यामदेवः, मनस एकाग्रता समाधिः । समाहितं चित्तमर्थान् पश्यति । 'अभ्यासः' इति मङ्गलः अविच्छेदेन शील१. अर्थे दिस्यऽपि पिन कश्चिभि निधगी म्फविचक्षण: स्यात् । ___EXIबलस्पमिपास्य पातु वा मान्यधाम्भो घनमय वि१] धर्म.. प्रथम सर्ग २. रमणीया प्रतिपादकः शब्दः काव्यम्-रसगंगाधर ३. धार्थ मन्या पदमपुरापि वाणी नुधानो न मनो धिनोति ।
गरोचते लोचनबालभापिस्नुहोक्षरस्तोरसरिनरेम्सः ॥१५॥ धर्म., प्रथम सर्ग ४. वाणी भरकस्यचिवेव पृण्यैः शधार्थसन्दर्भ विशेषगर्भा।
इन्दु विनान्यस्य न रश्यते धत्तमो धुनाना च सुघाधुनौद ।१६-धर्म., प्रथम सर्ग साहिरियक सुषमा