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सुहत्तमः सोऽय सभास हृत्तमःप्रभाकरश्छेत्तुमिति प्रभाकरः . घरे क्षणं व्यापृतकंपरेक्षणं तमीश्वरं प्राह अगसमीश्वरम् ॥१५॥
-धर्मशर्माभ्युदय, सर्ग १० तदनन्तर यह प्रभाकर मित्र, ओ सभाओं में हृदयगत अन्धकार को छेदने के लिए साक्षात् प्रभाकर-सूर्य था, जगच्चन्द्र भगवान् धर्मनाथ को पर्वत पर व्यापृतग्रीव और व्यापूस-नेम देखकर उल्लास-पूर्वक बोला।
____ जिस प्रकार शिशुपालवध के षष्ठ सर्ग में ऋसु-वर्णन के लिए मात्र ने द्रुतविलम्बित छन्द को चुना है और उसके घसुर्थ चरण में एकपवण्यापी यमक को स्थान दिया है उसी प्रकार धर्मशर्माभ्युदय के एकादश सर्ग में भी हरिचन्द्र ने द्रुतविलम्बित छन्द को चुना है और उसके चतुर्थ चरण में एकपदव्यापी यमझ को स्थान दिया है। जिस प्रकार बीच-बीच में कहीं चारों चरणों में व्याप्त यमक को माघ ने अपनाया है इसी प्रकार कहीं-कहीं हरिचन्द्र ने भी चारों परण-व्यापी ममक को अपनाया है । यथा
नवपलाशपलाशवनं पुरः स्फुटपरागपरागतपङ्कजम् । मृदुलतान्तलतान्तमलोकमत्स सुरभि सुरभि सुमनोभरैः ॥२॥
--शिशुपालवध, सर्ग ६ कलविराजिविराजितकानने नवरसालरसालसषट्पदः । सुरभिकेसरकेसरशोभितः प्रविससार स सारबलो मधुः ॥१०॥
-धर्मशर्माभ्युदय, सर्ग ११ शिशुपालवध के ससम सर्ग में वनक्रीड़ा का वर्णन है। श्रीकृष्ण, वन-विहार के लिए निकले इस सन्दर्भ का वर्णन माघ के शब्दों में है
अनुगिरमृतुभिवितायमानामय स विलोकयितुं बनान्तलक्ष्मीम् । निरगमदभिराखुमादृत्तानां भवति महत्सु न निष्फलः प्रयासः ॥१॥
-सर्ग तदनन्तर श्रीकृष्ण रक्तक गिरि पर ऋतुओं के द्वारा विस्तारित बनान्त-सुषमा को देखने के लिए शिविर से बाहर निकले, सो ठीक हो है क्योंकि श्रेष्ठ पुरुषों की सेवा में तत्पर रहने वाले लोगों का प्रयास व्यर्थ नहीं आता।
धर्मशाभ्युदय के बारहवें सगं में हरिचन्द्र भी कहते है--
दिदृक्षया कामनसंपदा पुरादथायमिक्ष्वाकुपतिविनिर्गयो । विधीयतेऽज्योऽप्यनुयायिनां गुणः समाहितः किन तथाविधः प्रभुः ॥११॥
-सर्ग १२ तदनन्तर इक्ष्वाकुवंश के अधिपति भगवान् धर्मनाथ वनवैभव देखने की इच्छा से नगर के बाहर निकले, सो ठीक ही है क्योंकि जब साधारण मनुष्य भी अनुयायियों के अनुकूल प्रवृत्ति करने लगते हैं, तब गुणशाली उन प्रभु का कहना ही क्या ?
आदान-प्रदान
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