________________
सामायिक, प्रोषधोपवास, अतिथिसंविभाग चोर
से चार ि कहलाते हैं । इनसे मुनिद्रत की शिक्षा मिलती है इसलिए इनका नाम शिक्षाव्रत रखा गया है । प्रातः, मध्याह्न और सायं इन तीन सन्ध्याओं में किसी निश्चित समय तक पाँच पापों का त्याग कर एक स्थान पर स्थित हो समता भाव धारण करना, पंचपरमेष्ठी की. आराधना करना तथा आत्मस्वरूप का चिन्तन करना सामायिक कहलाता है । प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशी के दिन अन्न, पेय, खाद्य और लेख - इन चारों प्रकार के आहारों का त्याग करना प्रोषधोपवास कहलाता है। योग्य पात्र के लिए आहार, भोषच, शास्त्र तथा अभय – ये चार प्रकार के दान अतिथिसंविभाग कहलाता है और अन्तिम समय कषाय को कृश करते हुए समताभाष से प्राणत्याग करना सल्लेखना कहलाती है। इसे ही संन्यासमरण अथवा समाधिमरण कहते हैं ।
-
इस प्रकार पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत को एकत्रित कर गृहस्थ के बारह व्रत कहते हैं। इनका पालन करनेवाला मनुष्य सागार, गृहस्थ या श्रावक कहलाता है | श्रावकधर्म का अभ्यास करनेवाला मनुष्य अपनी शक्ति को बढ़ाकर कभी मुनिव्रत भी धारण करता है और उसके फलस्वरूप मोक्षसुख को प्राप्त होता है ।
जीवन्धरकुमार के मुखारविन्द से श्रावकधर्म का वर्णन सुनकर किसान बहुत प्रसन्न हुआ तथा उसे धारण कर अपने जीवन को सफल मानने लगा । जीवन्धरकुमार ने उसकी पात्रता का विचार कर उसे अपने मणिमय आभूषण दे दिये और निर्द्वन्द्व होकर आगे बढ़ गये ।
किसी काव्य में धर्म तत्व का वर्णन संक्षिप्त हो शोभा देता है क्योंकि अधिक विस्तृत होने से कथा या काव्य का सौन्दर्य नष्ट हो जाता है और पाठक का चित्त उसले कब जाता है। जैसा कि जटासिंह नन्दी के बरांगचरित में हुआ हूँ । यही कारण है कि जीवन्धर चम्पू में महाकवि हरिचन्द्र ने ऐसे प्रसंगों को संक्षिप्त हो रखा है।
धर्मशर्माभ्युदय में चार्वाक दर्शन और उसका निराकरण
सुसीमा के राजा दशरथ चन्द्रग्रहण को देख संसार की मोह-ममता से विरक्त हो जब राजसभा में अपना दीक्षा लेने का विचार प्रकट करते हैं तब उनके सुमन्त्र नामक मन्त्री ने जो चार्वाक मत का अनुयायी था, राजा के इस प्रयत्न को व्यर्थ बसाते हुए जीव की स्वतन्त्र सत्ता को हो निरस्त कर दिया । राजा ने सुयुक्ति-बल से जीव की सत्ता को सिद्ध कर सुमन्त्र की मन्त्रणा का निरसन किया । धर्मशर्माभ्युदय का यह दार्शनिक प्रकरण अल्पकाय होने पर भी अपने आप में पूर्ण है तथा काव्य के काव्यत्व की रक्षा करने में दक्ष है । वीरनन्दी के चन्द्रप्रभचरित ( द्वितीय सर्ग ) और श्रीहर्ष के नैषधीयचरित ( सप्तदश सर्ग) में दार्शनिक प्रकरण आवश्यकता से अधिक लम्बे हो गये हैं, अतः वे काव्योचित नहीं जान पड़ते। धर्मशर्माभ्युदय का यह प्रकरण ६२-७५ तक मात्र १४ श्लोकों में पूर्ण हुआ है । सुमन्त्र मन्त्री का पूर्वपक्ष देखिए-
महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीकन
११६